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________________ अध्ययन २ जितने प्राणी निवास करते हैं उनमें तेरह प्रकार के क्रियास्थानों का वर्णन श्री तीर्थंकर देव ने किया है । : वे तेरह क्रिया स्थान ये हैं - - १. अर्थदण्ड - किसी प्रयोजन से पाप करना । २. अनर्थदण्ड - प्रयोजन के बिना ही पाप करना । ३. हिंसा दण्ड - प्राणियों की हिंसा करना । ४. अकस्माद्-दण्ड - दूसरे के अपराध से दूसरे को दण्ड देना । ५. दृष्टिविपर्य्यास दण्ड- दृष्टि दोष से किसी प्राणी को पत्थर का टुकड़ा आदि जान कर मारना । ६. मृषावादप्रत्ययिक - सच्ची बात को छिपाना और झूठी बात को स्थापित करना । ७. अदत्तादान - स्वामी के दिये बिना ही उसकी वस्तु को ले लेना । ८. अध्यात्मप्रत्ययिक- मन में बुरा विचार करना । ९. मान प्रत्ययिक जाति आदि के गर्व से दूसरे को नीची (हीन) दृष्टि से देखना । १०. मित्रद्वेष प्रत्ययिक मित्र के साथ द्रोह करना । ४१ ११. माया प्रत्ययिक- दूसरे को वञ्चन करना ( ठगना) । १२. लोभ प्रत्ययिक - लोभ करना । १३. ऐर्ष्यापथिक - पाँच समिति और तीन गुप्तियों से गुप्त रहते हुए सर्वत्र उपयोग रखने पर भी चलने फिरने आदि के कारण सामान्य रूप से कर्मबन्ध होना। ये तेरह क्रियास्थान हैं इन्हीं के द्वारा जीवों . को कर्मबन्ध होता है, इनसे भिन्न कोई दूसरी क्रिया कर्मबन्ध का कारण नहीं है। इन्हीं तेरह क्रिया i स्थानों में संसार के समस्त प्राणी हैं ॥। १६ ॥ Jain Education International - विवेचन इन तेरह क्रिया स्थानों द्वारा कर्म बन्ध होता है। इन क्रिया स्थानों का अर्थ एवं व्याख्या आगे यथा स्थान की जा रही है। पढमे दंड-समादाणे अट्ठा -दंड- वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे आय हेउं वा, गाइ-हेउं वा, अगार - हेउं वा, परिवार हेउं वा, मित्त-हे वा, णाग हेउं वा, भूत-हेउं वा, जक्ख-हेउं वा, तं दंडं तस - थावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरइ, अण्णेण वि णिसिरावेइ, अण्णं पि णिसितं समणुजाणइ; एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । पढमे दंड - समादाणे अट्ठा -दंडवत्तिए त्ति आहिए ।। १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अट्ठादंडवत्तिए - अर्थ दण्ड प्रत्ययिक, आयहेउं अपने लिए, णाइहेउं For Personal & Private Use Only f www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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