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________________ अध्ययन १ बुद्धिमान् पुरुष इन बातों को जान कर सम्पत्ति तथा परिवार में कभी आसक्त नहीं होते वे इन्हें शरीर के मल के समान त्याग कर संयम धारण करते हैं । ऐसे पुरुष ही संसार सागर को स्वयं पार करते हैं और उपदेश आदि के द्वारा दूसरों का भी उद्धार करते हैं । संसार रूपी पुष्करिणी के उत्तम श्वेत कमल के समान राजा महाराजा आदि धर्मश्रद्धालु पुरुषों को वे ही उस पुष्करिणी से बाहर निकाल सकते हैं दूसरे नहीं, यह जानना चाहिये ।। १३॥ विवेचन - दीक्षा ग्रहण करने के लिये उद्यत बने हुए दीक्षार्थी को वैराग्योत्पादक इन बातों पर गहराई से विचार कर लेना चाहिये कि - सोना, चांदी आदि तथा कामभोग आदि सब बाहरी पदार्थ हैं। यहाँ तक कि कुटुम्बीजन भी मेरे लिये त्राण-शरण रूप नहीं हो सकते हैं क्योंकि एक दूसरे का दु:ख दूसरा व्यक्ति नहीं ले सकता है। स्वयं के किये हुए कर्म का फल स्वयं को ही भुगतना पड़ता है। जीव अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है और अकेले ही अपने सुख दुःख का अनुभव करता है। इसलिये जातिजन रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। कभी तो किसी कारणवश मनुष्य पहले ही अपने ज्ञातिजनों को छोड़ देता है और कभी वे उसे पहले छोड़ देते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि - प्राणी से ज्ञाति-जन भिन्न हैं और वह भी ज्ञातिजनों से भिन्न है। फिर ज्ञातिजनों में आसक्ति क्यों रखी जाय ज्ञातिजन तो प्रत्यक्ष ही भिन्न प्रतीत होते हैं, परन्तु उनसे भी ज्यादा नजदीक और नजदीक ही क्या मानो आत्मा से अभिन्न प्रतीत होने वाला यह शरीर और शरीर के अन्तर्गत हाथ पैर आदि अवयव तथा आयुष्य, बल, वर्ण, कान्ति आदि पदार्थ हैं जिन पर मनुष्य ममत्व करता है। परन्तु जब बुढापा आने लगता है तब उसके इन सब अङ्गों का और शरीर सम्बन्धी पदार्थों की हानि होने लगती है और यहाँ तक कि एक दिन इस शरीर को भी छोड़ कर जाना पड़ता है। ___तात्पर्य यह है कि दीक्षार्थी इन्हीं परिज्ञान गर्भित वैराग्योत्पादक बातों के आधार पर बाहरी सब . पदार्थों से और शरीर से भी विरक्त हो जाता है, अथवा विरक्त हो जाना चाहिए। इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा-थावरा पाणा ते सयं समारभंति, अण्णेण वि समारं-भाति, अण्णं पि समारभंतं समणुजाणंति ।। - इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा; जे इमे काम-भोगा सचित्ता वा, अचित्ता वा ते सयं परिगिण्हंति, अण्णेणं वि परिगिण्हावेंति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाणंति । - इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एएसिं चेव णिस्साए बंभचेर-वासं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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