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________________ Jain Education International अध्ययन १ - प्रत्येक प्राणियों के द्वारा अनुभव किया जाने वाला वह ज्ञान, गुण है और अमूर्त है उस अमूर्त ज्ञान गुण का आश्रय कोई गुणी अवश्य होना चाहिये क्योंकि गुणी के बिना गुण का रहना संभव नहीं है । यद्यपि ज्ञान रूप गुण का आश्रय शरीर है यह नास्तिक गण बतलाते हैं तथापि उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि शरीर मूर्त है और ज्ञान अमूर्त है, मूर्त का गुण मूर्त ही होता है अमूर्त नहीं होता है इसलिये अमूर्त ज्ञान, मूर्त शरीर का गुण नहीं हो सकता है। अत: अमूर्त ज्ञान रूप गुण का आश्रय अमूर्त आत्मा को माने बिना काम नहीं चल सकता है। इस प्रकार ज्ञान गुण के आश्रय आत्मा की सिद्धि होने पर भी नास्तिक जो आत्मा को शरीर से पृथक् नहीं मानते हैं यह उनका दुराग्रह है। यदि आत्मा शरीर से भिन्न न हो तो किसी भी प्राणी का मरण नहीं हो सकता है क्योंकि शरीर तो मरने पर भी बना ही रहता है फिर तो किसी का मरण होना ही नहीं चाहिये। यद्यपि नास्तिक शरीर से भिन्न आत्मा का खण्डन करने के लिये उसमें वर्ण, गन्ध, रस, अवयव रचना आदि का अभाव दिखलाते हैं और इस अभाव को दिखा कर आत्मा के सद्भाव का खण्डन करते हैं परन्तु वे यह नहीं समझते हैं कि, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और अवयव रचना आदि गुण मूर्त्त पदार्थ के होते हैं अमूर्त के नहीं होते । आत्मा तो अमूर्त है फिर उसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और अवयव रचना आदि गुण हो ही कैसे सकते हैं ? तथा इनके न होने से अमूर्त्त आत्मा के अस्तित्व का खण्डन कैसे किया जा सकता है ? हम नास्तिक से पूछते हैं कि - वह अपने ज्ञान के अस्तित्व का अनुभव करता है या नहीं ? यदि नहीं करता है तो उसकी नास्तिकवाद के समर्थन आदि में प्रवृत्ति कैसे होती है ? और यदि वह अनुभव करता है तो उसमें वह कौनसा वर्ण, गन्ध, रस, रूप और स्पर्श तथा अवयव रचना को प्राप्त करता है ? यदि उस ज्ञान में वर्ण आदि की उपलब्धि न होने पर भी नास्तिक उसका सद्भाव मानता है तो फिर आत्मा को न मानने का क्या कारण है ? नास्तिक कहते हैं कि- "जो वस्तु जिससे भिन्न होती है वह उससे अलग करके दिखायी जा सकती है जैसे म्यान से बाहर निकाल कर तलवार दिखायी जाती है" इत्यादि परन्तु यह भी इनका कथन असंगत है क्योंकि तलवार आदि तो मूर्त पदार्थ हैं वे दिखाये जाने योग्य हैं अतः वे दूसरी वस्तु से बाहर निकाल कर दिखाये जा सकते हैं परन्तु जो अमूर्त होने के कारण दिखाने योग्य नहीं है उसको कोई कैसे दिखा सकता है ? नास्तिक अपने ज्ञान को क्यों नहीं दिखा देता ? वह अपने ज्ञान को समझाने के लिये शब्द का प्रयोग क्यों करता है ? जैसे हथेली में स्थित आँवले को बताने के लिये शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है किन्तु सीधे ही दर्शक को वह दिखा दिया जाता है इसी तरह नास्तिक अपने ज्ञान को क्यों नहीं दिखा देते ? यदि वे कहें कि अमूर्त होने के कारण ज्ञान नहीं दिखाया जा सकता है तो यही उत्तर आत्मा के न दिखाये जाने के पक्ष में भी क्यों न समझा जावें । ये नास्तिक, लोकायतिक कहलाते हैं इनके मत में कोई दीक्षा नहीं होती है लेकिन ये पहले शाक्य मत के अनुसार दीक्षा धारण करते हैं और पीछे लोकायतिक मत के ग्रन्थों को पढ़कर ये लोकायतिक बन जाते हैं । ये लोकायतिक मत को ही सत्य मानते हुए परलोक आदि का खण्डन करते हैं और जिस - १५ For Personal & Private Use Only ********* www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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