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________________ अध्ययन ७ जैसा निश्चित किया है वैसा मुझसे वाद सहित कहें तब गौतम स्वामी ने कहा कि हे आयुष्मन् उदक पेढाल पुत्र ! आपके प्रश्न को सुन कर और समझ कर यदि मैं जान सकूंगा तो उत्तर दूंगा । तब निर्ग्रन्थ उदक पेढाल पुत्र ने विनयपूर्वक इस प्रकार प्रश्न पूछा आउसो ! गोयमा अत्थि खलु कुमारपुत्तिया णाम समणा णिग्गंथा तुम्हाणं पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपण्णं एवं पच्चक्खावेंति-णण्णत्थ अभिओएणं गाहावइ-चोरग्गहण - विमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, एवं णं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं णं पच्चक्खावेमाणाणं दुपच्चक्खावियव्वं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अइयरंति सयं पइण्णं, कस्स णं तं हेउं ?, संसारिया खलु पाणा थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति तसावि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्यमाणा तसकायंसि उववज्जंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति, तेसिं च णं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं ॥ ७२ ॥ Jain Education International कठिन शब्दार्थ- पवयमाणा - निरूपण करते हुए, उवसंपण्णं- उवसंपदा के लिये आये हुए, गाहावइ-चोरग्गहण-विमोक्खणयाए - गाथापति के चोर ग्रहण ( पकड़ने) एवं छोड़ने के न्याय से पण - प्रतिज्ञा को अइयरंति - उल्लंघन करते हैं, पच्चायंति उत्पन्न होते हैं, विप्पमुच्चमाणा - छोड़ते हुए । भावार्थ उदक पेढालपुत्र गौतम स्वामी से कहता है कि - हे भगवन् ! आपके अनुयायी कुमारपुत्र नामक श्रमण निर्ग्रन्थ, श्रावकों को जिस पद्धति से प्रत्याख्यान कराते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि उस पद्धति से प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकता किन्तु भङ्ग होता है । जैसे कि उनके पास जब कोई श्रद्धालु गृहस्थ प्रत्याख्यान करने की इच्छा प्रकट करता है तब वे इस प्रकार प्रत्याख्यान उसे कराते हैं कि - "राजा आदि के अभियोग को छोड़कर (गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणन्याय से) त्रस प्राणी को दण्ड देने का त्याग है" परन्तु इस रीति से प्रत्याख्यान कराने पर प्रतिज्ञा नहीं पाली जा सकती है क्योंकि - प्राणी परिवर्तनशील हैं वे सदा एक शरीर में ही नहीं रहते किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के उदय से भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं अतएव कभी तो त्रस प्राणी त्रस शरीर को त्याग कर स्थावर शरीर में आ जाते हैं और कभी स्थावर प्राणी स्थावर शरीर को त्याग कर त्रस शरीर में आ जाते हैं ऐसी दशा में जिसने यह प्रतिज्ञा की है कि " मैं त्रस प्राणी का घात न करूँगा " वह पुरुष स्थावर शरीर में गये हुए उस स प्राणी को ही अपने घात के योग्य मानता है और आवश्यकतानुसार उसका घात भी कर डालता है फिर उसकी त्रस प्राणी को दण्ड न देने की प्रतिज्ञा कैसे अभंग रह सकती है। जैसे किसी पुरुष ने प्रतिज्ञा की है कि "मैं नागरिक पुरुष या पशु को नहीं मारूंगा" वह पुरुष यदि नगर से बाहर 1 १९१ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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