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________________ अध्ययन ७ नालंदीय नामक सातवां अध्ययन उत्थानिका - छठे अध्ययन के पश्चात् सप्तम अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है। पूर्व के अध्ययन में साधुओं के आचार का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। परन्तु श्रावकों के आचार का वर्णन नहीं किया गया है। अतः श्रावकों का आचार बताने के लिये इस सातवें अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है। इस अध्ययन का नाम नालंदीय है। राजगृह के बाहर नालंदा नामका स्थान है। उसमें जो घटना हुई है उसे " नालंदीय" कहते हैं। उस स्थान का नाम नालंदा होने से ज्ञात होता है कि - वह स्थान याचकों के समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला था। क्योंकि "नालंदा " शब्द का यही अर्थ व्युत्पत्ति से निकलता है। "न अलं ददाति इति नालन्दा' यह नालन्दा शब्द की व्युत्पत्ति है। इसमें न ( नकार) और अलं शब्द दोनों ही निषेधार्थक हैं। दान शब्द "दा" धातु (दानार्थक) से बना है। संस्कृत का नियम है- "द्वौ नञो प्रकृतमर्थमनुसरतः " अर्थात् निषेधवाची दो शब्द प्रकृत अर्थ अर्थात् विधि अर्थ को कहते हैं। इसलिये नालन्दा शब्द का यह अर्थ कि जो याचकों को उनकी इच्छा के अनुसार अवश्य दान देवें । यह नालन्दा शब्द का व्युत्पत्ति हुआ अर्थ है । - 11 Jain Education International १८७ नालन्दा उस युग में जैन और बौद्ध दोनों परंपराओं में राजगृह नगर का उपनगर था। नालन्दा शब्द का अर्थ भी गौरवपूर्ण है - जहाँ श्रमण, ब्राह्मण, परिव्राजक आदि किसी भी भिक्षाचर के लिये दान का निषेध नहीं था अपितु याचक की इच्छा के अनुसार प्रचुर मात्रा में दान दिया जाता था। श्रेणिक तथा बड़े-बड़े सामन्त एवं सेठ सार्थवाह आदि नरेन्द्रों का निवास होने के कारण उसका नाम 'नारेन्द्र' भी प्रसिद्ध था। जो मागधी भाषा के उच्चारण के अनुसार 'नालेंद' पड़ा बाद में ह्रस्व उच्चारण के कारण 'नालिंद' तथा इकार के स्थान में अकार हो जाने से 'नालन्द' हुआ । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के यहाँ १४ चातुर्मास होने के कारण इस उपनगर का गौरव और महत्त्व बहुत बढ़ गया। इस कारण भी इस अध्ययन का नाम नालन्दीय रखा जाना स्वाभाविक है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम के साथ पुरुषादानीय भगवान् पारसनाथ की परम्परा के निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र की जो धर्मचर्चा हुई है उसका वर्णन इस अध्ययन में होने से इसका नाम 'नालन्दीय' रखा गया है। इस अध्ययन में सर्वप्रथम धर्मचर्चा का स्थान बतलाने के लिए राजगृह, नालन्दा, श्रमणोपासक लेप गाथापति, उसके द्वारा निर्मित 'शेषद्रव्या' नामक उदक शाला (प्याऊ) तथा उसके निकटवर्ती हस्तियाम वनखण्ड और वनखण्ड के अन्दर आये हुए मनोरम उद्यान का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् श्री गौतमस्वामी और निर्ग्रन्थ उदक पेढाल पुत्र की धर्मचर्चा का प्रश्नोत्तर के रूप में वर्णन है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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