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________________ १७२। श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ के भेद को भी नहीं जानता है उसकी भावशुद्धि कभी नहीं हो सकती है। मनुष्य को खली मान कर उसे शूल में वेध कर पकाना और उसे खली समझ कर मांस भक्षण करना अत्यन्त पाप है ऐसे कार्यों में पाप का अभाव बताने वाले और उसे सुन कर वैसा ही मानने वाले दोनों ही पुरुष अज्ञानी और पाप की वृद्धि करने वाले हैं ऐसे पुरुषों का भाव कभी शुद्ध नहीं होता है। यदि ऐसे पुरुषों का भाव शुद्ध माना जाय तब तो जो लोग रोग आदि से पीड़ित प्राणी को विष आदि का प्रयोग करके मार डालने का उपदेश करते हैं उनके भाव को भी शुद्ध क्यों न मानना चाहिये ? परन्तु बौद्ध गण उसके भाव को शुद्ध नहीं मानते हैं । तथा एकमात्र भाव की शुद्ध ही यदि कल्याण का साधन है तब फिर बौद्ध लोग शिर का मुण्डन और भिक्षावृत्ति क्रियाओं का आचरण क्यों करते हैं अतः भावशुद्धि के साथ बाह्य क्रिया की पवित्रता भी आवश्यक है। जो लोग मनुष्य को खली समझ कर उसको आग में पकाते हैं वे दो घोर पापी तथा प्रत्यक्ष ही अपने आत्मा को घोखा देने वाले हैं। इसलिये उनका भाव भी दूषित है। अतः पूर्वोक्त बौद्धों की मान्यता ठीक नहीं है ॥३० ।। उडं अहेयं तिरियं दिसास, विण्णाय लिंगं तसथावराणं । भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे, वएण्ज करेजा व कुओ कीहत्यि? ॥ ३१॥ कठिन शब्दार्थ - विण्णाय - जान कर, लिंग - लिंग (लक्षण) को, भूयाभिसंकाइ - जीव हिंसा की आशंका से,दुगुंठमाणे - घृणा करता हुआ, वि - अपि - भी, इह - इस जिन शासन में, अत्यि - है। भावार्थ - ऊपर, नीची और तिरछी दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणियों के सद्भाव के चिह्न को जानकर जीव हिंसा की आशङ्का से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचार कर भाषण करे और कार्य भी विचार कर ही करे तो उसे दोष किस प्रकार हो सकता है ? ॥ ३१ ॥ . विवेचन - आर्द्रकुमार मुनि बौखों के पक्ष को दूषित करके अब अपना पक्ष चलाते हैं - ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र जो उस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं वे अपनी-अपनी जाति के अनुसार चलना, कम्पन और अंकुर उत्पन्न करना आदि क्रियाएं करते हैं तथा छेदन करने पर स्थावर प्राणी मुरझा जाते हैं। इत्यादि बातें इनके जीव होने के चिह्न हैं। अतः विवेकी पुरुष इन चिह्नों को देखकर इन प्राणियों की रक्षा के लिये निरवध भाषा बोलते हैं और निरवद्य कार्य का ही अनुष्ठान करते हैं। ऐसे पुरुषों को किसी प्रकार का. पाप नहीं लगता है। अतः इन पुरुषों का जो धर्म है वही सच्चा और दोष रहित है। इसलिये ऐसे धर्म के वक्ता और श्रोता दोनों ही उत्तम हैं, यह जानो ।।३१ ॥ पुरिसेत्ति विण्णत्ति ण एवमस्थि, अणारिए से पुरिसे तहा हु। को संभवो ? पिण्णगपिंडियाए, वायावि एसा बुझ्या असच्चा ॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - विण्णत्ति - विज्ञप्ति-ज्ञान,अणारिए - अनार्य,असच्चा - असत्य। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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