SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ करके शेष चार अघाती कर्मों का क्षपण करने के लिये एवं उच्च गोत्र, शुभ आयु और शुभ नाम आदि प्रकृतियों का क्षय करने के लिये बारह प्रकार की परिषद् में वे धर्म का उपदेश करते हैं। अतः उनको चञ्चल चित्त बताना अज्ञान है यह गोशालक से आद्रकमुनि ने कहा। समिच्च लोगं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा। आइक्खमाणोवि सहस्समझे, एगंतयं सारयइ तहच्चे॥४॥ कठिन शब्दार्थ - खेमंकरे - क्षेमंकर-कल्याण करने वाले, सहस्समझे - हजारों के मध्य में, एगंतयं - एकान्त का ही। भावार्थ - बारह प्रकार की तपस्या से अपने शरीर को तपाये हुए तथा "प्राणियों को मत मारो" ऐसा कहने वाले भगवान् महावीर स्वामी केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् को जानकर त्रस और स्थावर प्राणियों के कल्याण के लिये हजारों जीवों के मध्य में धर्म का कथन करते हुए भी एकान्त का ही अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति उसी तरह की बनी रहती है॥ ४ ॥ धम्मं कहतस्स उ णत्थि दोसो, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स । भासाय दोसे य विवजगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्स ॥५। कठिन शब्दार्थ - विवजगस्स - वर्जित करने वाले के, णिसेवगस्स - सेवन करने वाले के। भावार्थ - धर्म का उपदेश करते हुए भगवान् को दोष नहीं होता क्योंकि - भगवान् समस्त परीषहों को सहन करने वाले, मन को वश में किये हुए और इन्द्रियों के विजयी हैं। अतः भाषा के दोषों को वर्जित करने वाले भगवान् के द्वारा भाषा का सेवन किया जाना गुण ही है दोष नहीं है ॥५॥ . महव्वए पंच अणुव्वए य, तहेव पंचासवसंवरे य। विइं इहस्सामणियंमि पण्णे, लवावसक्की समणे त्ति बेमि ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - विरई - विरति को, सामणियंमि - साधुपने में, लवावसक्की - कर्म से दूर . रहने वाले। भावार्थ - कर्म से दूर रहने वाले तपस्वी भगवान महावीर स्वामी श्रमणों के लिये पांच महाव्रत और श्रावकों के लिये पांच अणुव्रत तथा पांच आस्रव और संवर का उपदेश करते हैं एवं पूर्ण साधुपने में वे विरति की शिक्षा देते हैं यह मैं कहता हूँ॥ ६ ॥ विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी की पहली चर्या दूसरी थी और अब दूसरी है क्योंकि वे पहले अकेले रहते थे और अब वे अनेक मनुष्यों के साथ रहते हैं अतः वे दाम्भिक हैं सच्चे साधु नहीं है यह जो गोशालक ने आक्षेप किया है इसका समाधान देते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं किभगवान् महावीर स्वामी सच्चे साधु हैं, दाम्भिक नहीं है। पहले उनको केवलज्ञान प्राप्त नहीं था इसलिये वे उसकी प्राप्ति के लिये मौन रहते थे और एकान्तवास करते थे। उस समय उनके लिये . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy