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________________ अध्ययन ५ १५३ पदार्थों को बौद्धों की तरह एकान्त क्षणिक भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि-बौद्ध, पूर्व पदार्थ का एकान्त विनाश और उत्तर पदार्थ की निर्हेतुक उत्पत्ति कहते हैं वस्तुतः यह मत ठीक नहीं है यह पहले कहा जा चुका है । एवं यह समस्त जगत् दुःखात्मक है यह भी विवेकी पुरुष को नहीं कहना चाहिये क्योंकिसम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय की प्राप्ति होने पर जीव को असीम आनन्द की प्राप्ति होती है यह शास्त्र कहता है । अतएव विद्वानों ने कहा है कि - . "तणसंत्यार णिसण्णोवि मुणिवरो, भट्ठरायमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्रवट्टी वि"। अर्थात् राग, द्वेष, मोह और मद से रहित मुनि तृण की शय्या पर बैठा हुआ भी जिस अनुपम आनन्द को प्राप्त करता है उसको चक्रवर्ती भी कहां से प्राप्त कर सकता है ? अतः समस्त जगत् एकान्त रूप से दुःखात्मक है. यह विद्वान् को नहीं कहना चाहिये । एवं जो प्राणी चोर और पारदारिक आदि महान् अपराधी हैं उनको साधु यह न कहे कि "ये प्राणी वध करने योग्य है अथवा ये वध करने योग्य नहीं है" इसी तरह दूसरे प्राणियों को मारने में सदा तत्पर रहने वाले सिंह, व्याघ्र, और विडाल आदि प्राणियों को भी देखकर साधु यह न कहे कि-"ये प्राणी वध करने योग्य हैं अथवा ये वध करने योग्य नहीं है" किन्तु साधु समस्त प्राणियों के ऊपर समभाव रखता हुआ मध्यस्थवृत्ति धारण करे । अतएव तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि - 'मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिक-क्लिश्यमानाविनेयेषु'। अर्थात् - साधु समस्त प्राणियों में मैत्री भाव तथा अधिक गुण वाले पुरुषों पर हर्ष एवं दुःखी पर करुणा और अविनीत प्राणियों पर मध्यस्थता रखे । इसी तरह दूसरे वाक्संयमों के विषय में भी जानना चाहिये ।। ३०॥ शास्त्रोक्त रीति से आत्मसंयम करने वाले अथवा शास्त्रीय आचार का पालन करने वाले भिक्षामात्रजीवी उत्तम रीति से जीने वाले साधु पुरुष इस जगत् में देखे जाते हैं। वे पुरुष किसी को दुःख नहीं देते हैं किन्तु क्षमाशील, इन्द्रियविजयी, वचन के पक्के, प्रासुक(अचित्त) जल पीने वाले और एक युग(चार हाथ) पर्य्यन्त दृष्टि रख कर चलने वाले हैं । ऐसे पुरुषों को देखकर यह नहीं कहना चाहिये कि - "ये सराग होकर भी वीतराग के समान आचरण करते हैं अतः ये कपटी है" इत्यादि । जो पुरुष सर्वज्ञ नहीं है वह ऐसा निश्चय करने में समर्थ नहीं हो सकता है कि-"अमुक पुरुष सराग है और अमुक वीतराग है तथा अमुक कपटी है और अमुक सच्चा साधु है इत्यादि"। अतः शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि-वह पुरुष चाहे स्वतीर्थी हो या परतीर्थी हो, उसके विषय में उक्त वाक्य साधु को नहीं कहना चाहिये । अतएव विद्वानों ने कहा है कि "यावत् परगुण परदोषकीर्त्तने व्यापृतं मनो भवति। तावद् वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनःकर्तुम्" ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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