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________________ अध्ययन ५ कहता है अतः सभी प्राणियों को जीव मानस प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष सबसे श्रेष्ठ प्रमाण है इसलिये प्रत्यक्ष सिद्ध जीव को सिद्ध करने के लिये अनुमान आदि प्रमाणों का संचार करके ग्रन्थ का कलेवर बढ़ाना ठीक नहीं है। वह जीव सिद्ध (मुक्तात्मा) और संसारी भेद से दो प्रकार का है और सभी जीव अलगअलग स्वतन्त्र हैं किसी के साथ किसी जीव का कार्य्यकारणभाव नहीं है तथा ये जीव किसी ब्रह्म या आत्मा के परिणाम भी नहीं हैं क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है तथा अनुभव से भी विरोध पड़ता है। एवं एक आत्मा को ही समस्त चराचर प्राणियों का आत्मा मानने से जगत् की विचित्रता हो नहीं सकती है इस जगत् में घट पट आदि अचेतन पदार्थ भी अनन्त हैं वे चेतनरूप आत्मा या ब्रह्म के परिणाम हों यह सम्भव नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर वे जड़ नहीं किन्तु चेतन होते तथा एक आत्मा होने पर एक के सुख से दूसरा सुखी और दूसरे के दुःख से दूसरे दुःखी हो जाते परन्तु ऐसा है नहीं । अतः एक आत्मा को ही परमार्थ सत् मानकर शेष समस्त पदार्थों को मिथ्या मानना आत्माद्वैतवादियों का भ्रम है इसलिये आर्हत दर्शन की यह तेरहवीं गाथा उपदेश करती है कि-" जीव और अजीव नहीं है यह बात नहीं माननी चाहिये किन्तु जीव और अजीव हैं" यही मानना चाहिये ।। १२-१३ ॥ णत्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अथ धम्मे अधम्मे वा, एवं सण्णं णिवेस ॥ १४ ॥ भावार्थ - धर्म या अधर्म नहीं है यह नहीं मानना चाहिये धर्म और अधर्म हैं यही बात माननी चाहिये । णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सण्णं णिवेसए ।। १५ ।। भावार्थ- - बन्ध अथवा मोक्ष नहीं है यह नहीं मानना चाहिये किन्तु बन्ध और मोक्ष है यही बात माननी चाहिये । . Jain Education International विवेचन श्रुत और चारित्र, धर्म कहलाते हैं और वे आत्मा के अपने परिणाम हैं एवं वे कर्मक्षय के कारण हैं तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग अधर्म कहलाते हैं ये भी आत्मा के ही परिणाम हैं। ये दोनों ही धर्म और अधर्म अवश्य हैं अतः इनका निषेध नहीं करना चाहिये । ऊपर कही हुई बात सत्य होने पर भी कई लोग काल, स्वभाव, नियति और ईश्वर आदि को समस्त जगत् की विचित्रता का कारण मानकर धर्म और अधर्म को नहीं मानते हैं परन्तु उनकी यह मान्यता यथार्थ नहीं है क्योंकि धर्म और अधर्म के बिना वस्तुओं की विचित्रता सम्भव नहीं है । काल स्वभाव और नियति आदि भी कारण अवश्य हैं परन्तु वे धर्म और अधर्म के साथ ही कारण होते हैं इन्हें छोड़कर नहीं क्योंकि एक ही काल में जन्म धारण करने वाला कोई काला कोई गोरा, कोई सुन्दर कोई बीभत्स, कोई हृष्ट पुष्टाङ्ग कोई अङ्गहीन तथा कोई दुर्बल आदि होता है काल आदि की - - १४१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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