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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ प्रत्याख्यान क्रिया नामक चौथा अध्ययन 1 - उत्थानिका इस चौथे अध्ययन का नाम प्रत्याख्यान क्रिया है। आत्मा किसी देव, भगवान् या गुरु की कृपा से अथवा किसी धर्मतीर्थ की शरण स्वीकार कर लेने मात्र से पाप कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता । केवल त्याग प्रत्याख्यान के विधि विधानों की बातें करने मात्र से तथा कोरी आध्यात्मिक ज्ञान की बातें करने से भी व्यक्ति पापकर्म से मुक्त नहीं हो सकता है। समस्त पापकर्मों को रोकने का और मुक्त होने का अचूक उपाय है प्रत्याख्यान क्रिया । प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ है - पापकार्यों का त्याग करना । प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद हैं। द्रव्य प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । किसी द्रव्य का अविधिपूर्वक निरुद्देश्य त्यागना या किसी द्रव्य के निमित्त प्रत्याख्यान करना द्रव्य प्रत्याख्यान है। आत्म शुद्धि के उद्देश्य से मूल गुण और उत्तर गुण में बाधक प्राणातिपात आदि अठारह पापों का यथाशक्ति त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान के साथ क्रिया शब्द जुड़ जाने से विशिष्ट अर्थ हो जाते हैं। यथा - गुरु या गुरुजन या तीर्थङ्कर भगवान् की साक्षी से विधिपूर्वक त्याग या नियम स्वीकार करना अथवा प्राणातिपात आदि पाप कर्मों के त्याग या व्रत नियम तप का संकल्प करते समय मन धारण करना, वचन से ‘“वोसिरामि वोसिरामि" बोलना तथा काया से तदनुकूल व्यवहार करना। मूलगुण और उत्तरगुणों की साधना में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण, आलोचना, निन्दना (स्वयं पश्चात्ताप करना), गर्हणा (गुरु साक्षी से निंदा करना) तथा व्युत्सर्ग (त्याग) करना । इस अध्ययन में इस प्रकार की भाव प्रत्याख्यान क्रिया के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। सर्व प्रथम अप्रत्याख्यानी आत्मा पाप के द्वार खुले रहने के कारण निरंतर पापकर्म का बन्ध होना बताया गया है और उसे असंयत, अविरत, पापकर्म अप्रतिघाती, अप्रत्याख्यानी एकान्त बाल आदि बताया गया है और अन्त में प्रत्याख्यानी आत्मा कौन और कैसे होता है इस बात पर प्रकाश डाला गया है। सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु पच्चक्खाणकिरियाणामज्झयणे, तस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते- आया अपच्चक्खाणीयावि भवइ, आया अकिरियाकुसले यावि भवइ, आया मिच्छासंठिए यानि भवइ, आया एगंतदंडे यावि भवइ, आया एगंतबाले यावि भवइ, आया एगंतसुते यावि भवइ, आया अवियारमणवयणकायवक्के यावि भवइ, आया अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवइ, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते से बाले अवियारमण-वयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्जइ । ६३ ॥ कठिन शब्दार्थ- पच्चक्खाणकिरियाणामं प्रत्याख्यान क्रिया नामक, अज्झयणे अध्ययन, ११८ Jain Education International - For Personal & Private Use Only - . www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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