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श्री स्थानांग सूत्र
संयम, तप आदि के द्वारा रोकने से आत्मा में कर्म का प्रवेश नहीं होता। नाव में पानी का रुक जाना द्रव्य संवर है और आत्मा में कर्मों के आगमन को रोक देना भाव संवर है। यहाँ संवर के पांच भेद कहे गये हैं - १. श्रोत्रेन्द्रिय संवर २. चक्षुरिन्द्रिय संवर ३. घ्राणेन्द्रिय संवर ४. रसनेन्द्रिय संवर ५. स्पर्शनेन्द्रिय संवर। पांचों इन्द्रियों को उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श की ओर जाने से रोकना, उन्हें अशुभ व्यापार से निवृत्त करके शुभ व्यापार में लगाना श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों का संवर है। इससे विपरीत पांच प्रकार का असंवर होता है।
संयम - सम्यक् प्रकार सावध योग से निवृत्त होना या आस्रव से विरत होना या छह काया की रक्षा करना संयम है। अथवा - चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति परिणाम को संयम (चारित्र) कहते हैं। ___ अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए कर्म संचय को दूर करने के लिये मोक्षाभिलाषी आत्मा का सर्व सावध योग से निवृत्त होना संयम कहलाता है। संयम के पांच भेद कहे हैं - .
१. सामायिक संयम २. छेदोपस्थापनिक संयम ३. परिहार विशुद्धि संयम ४. सूक्ष्मसम्पराय संयम ५. यथाख्यात संयम।
१. सामायिक संयम - सम अर्थात् राग द्वेष रहित आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्म विशुद्धि का प्राप्त होना सामायिक है।
भवाटवी के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाली, चिन्तामणि, कामधेनु एवं कल्प वृक्ष के सुखों से भी बढ़कर, निरुपम सुख देने वाली ऐसी ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर्यायों को प्राप्त कराने वाले, राग द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को सामायिक संयम कहते हैं।
सर्व सावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना सामायिक चारित्र है। .... यों तो चारित्र के सभी भेद सावध योग विरतिरूप हैं। इसलिये सामान्यतः सामायिक ही हैं। किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण होने से नाम और अर्थ से भिन्न भिन्न बताये गये हैं। छेद आदि विशेषणों के न होने से पहले चारित्र का नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है।
सामायिक के दो भेद-इत्वर कालिक सामायिक और यावत्कथिक सामायिक।
इत्वर कालिक सामायिक - इत्वर काल का अर्थ है अल्प काल अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्प काल की सामायिक हो, उसे इत्वर कालिक सामायिक कहते हैं। पहले एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता तब तक उस शिष्य के इत्वर कालिक सामायिक समझनी चाहिये।
यावत्कथिक सामायिक - यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के सिवाय शेष बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के
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