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________________ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 और परिग्रह इन पांच कारणों से जीव कर्मरूपी रज को ग्रहण करते हैं यानी कर्म बांधते हैं । प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण और परिग्रह विरमण इन पांच कारणों से जीव कर्मरूपी रज का वमन करते हैं यानी कर्मों की निर्जरा करते हैं। पांच मास की भिक्षुपडिमा को अङ्गीकार करने वाले साधु को पांच दत्ति आहार की और पांच दत्ति पानी की ग्रहण करना कल्पता है। ___ पांच प्रकार के उपघात यानी आहार के दोष कहे गये हैं। यथा - उद्गमोपघात यानी उद्गम के आधाकर्मादि सोलह दोष, उत्पादनोपघात यानी उत्पादना के धात्री आदि सोलह दोष, एषणोपघात यानी एषणा के शंकित आदि दस दोष और परिकर्मोपघात यानी कल्प के उपरान्त वस्त्र पात्रं आदि को सीना छेदना आदि, परिहरणोपघात यानी उपाश्रय सम्बन्धी दोष लगाना। पांच प्रकार की विशुद्धि कही गई है । यथा - उद्गम विशुद्धि यानी उद्गम के दोष न लगाना । उत्पादना विशुद्धि यानी उत्पादना के दोष न लगाना। एषणा विशुद्धि यानी एषणा के शंकित आदि दोष न लगाना, परिकर्म विशुद्धि और परिहरणविशुद्धि। विवेचन - प्रमाद का सेवन सुप्तदशा है और प्रमाद का त्याग जागृत दशा है। जितने भी प्रमत्त. संयत हैं उनकी पांच इन्द्रियां अपने अपने विषय को ग्रहण करने के लिए सदा उद्यत और जागरूक रहती हैं किन्तु जो अप्रमत्त संयत हैं उनके पांच विषय सुप्त रहते हैं। प्रमत्त अवस्था में कर्मों का बंध होता है जबकि अप्रमत्त अवस्था में कर्मों का क्षय होता है। इसीलिये अप्रमत्त संयत सोते हुए भी जागृत हैं। आचारांग सूत्र में कहा है - "सुत्ता मुणी, अमुणिणो सया जागरंति" असंयत मनुष्य भले ही जागृत हो या सुप्त फिर भी त्याग भावना एवं विवेक के अभाव में उसके लिये शब्द आदि पांच विषय सदैव जागृत ही रहते हैं अर्थात् इन्द्रिय विषयक कर्मबन्ध होता ही रहता है। उपघात यानी अशुद्धता। आधाकर्म आदि सोलह प्रकार के उद्गम के दोषों से आहार, पानी उपकरण और स्थान की अशुद्धता उद्गमोपघात कहलाती है। धात्री आदि सोलह उत्पादना के दोष लगाना उत्पादनोपघात, शंकित आदि दस दोष लगाना एषणोपघात है। कल्प के उपरांत वस्त्र, पात्र आदि को सीना छेदना परिकर्मोपघात है तथा उपाश्रय संबंधी दोष लगाना परिहरणोपघात कहलाता है। उपघात से विपरीत यानी इन दोषों को टालने से पांच प्रकार की विशुद्धि कही है। दुर्लभबोधि, सुलभबोधि पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा - अरिहंताणं अवण्णं वयमाणे, अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे, आयरिय उवझायाणं अवण्णं वयमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे, विवक्क तव बंभचेराणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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