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________________ ५२ श्री स्थानांग सूत्र लगने वाली क्रिया मायाप्रत्यया है। जैसे अपने अशुभ भाव छिपा कर शुभ भाव प्रगट करना, झूठे लेख लिखना आदि। ४. अप्रत्याख्यानिकी क्रिया - अप्रत्याख्यान अर्थात् थोड़ा सा भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी क्रिया है। अव्रत से जो कर्म बन्ध होता है वह अप्रत्याख्यान क्रिया है। . ५. मिथ्यादर्शन प्रत्यया - मिथ्यादर्शन अर्थात् तत्त्व में अश्रद्धान या विपरीत श्रद्धान से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्ययां क्रिया है। . क्रिया के पाँच प्रकार - १. दृष्टिजा (दिट्ठिया) २. पृष्टिजा या स्पर्शजा (पुट्ठिया) ३. प्रातीत्यिकी (पाडुच्चिया) ४. सामन्तोपनिपातिकी (सामन्तोवणिया) ५. स्वाहस्तिकी (साहत्थिया)। . __.१. दृष्टिजा (दिट्ठिया) - अश्व आदि जीव और चित्रकर्म आदि अजीव पदार्थों को देखने के लिये गमन रूप क्रिया दृष्टिजा (दिट्ठिया) क्रिया है। दर्शन, या देखी हुई वस्तु के निमित्त से लगने वाली क्रिया भी दृष्टिजा क्रिया है। दर्शन से जो कर्म उदय में आता है वह दृष्टिजा क्रिया है। २. पृष्टिजा या स्पर्शजा (पुट्ठिया) - राग द्वेष के वश हो कर जीव या अजीव विषयक प्रश्न से . या उनके स्पर्श से लगने वाली क्रिया पृष्टिजा या स्पर्शजा क्रिया है। . ३. प्रातीत्यिकी (पाडुच्चिया) - जीव और अजीव रूप बाह्य वस्तु के आश्रय से जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है। तज्जनित कर्म बन्ध को प्रातीत्यिकी (पाडुच्चिया) क्रिया कहते हैं। ४. सामन्तोपनिपातिकी (सामन्तोवणिया) - चारों तरफ से आकर इकट्ठे हुए लोग ज्यों ज्यों . किसी प्राणी, घोड़े, गोधे (सांड) आदि प्राणियों की और अजीव-स्थ आदि की प्रशंसा सुन कर हर्षित होते हैं। हर्षित होते हुए उन पुरुषों को देख कर अश्वादि के स्वामी को जो हर्ष होता है उससे जो क्रिया लगती है वह सामन्तोपनिपातिकी क्रिया है तथा उन सब पुरुषों को एक साथ लगने वाली क्रिया भी सामन्तोपनिपातिकी क्रिया कहलाती है।. ५. स्वाहस्तिकी - अपने हाथ में ग्रहण किये हुए जीव या अजीव (जीव की प्रतिकृति) को मारने से अथवा ताडन करने से लगने वाली क्रिया स्वाहस्तिकी (साहत्थिया) क्रिया है। . क्रिया के पाँच भेद - १. नैसृष्टिकी (नेसत्थिया) २. आज्ञापनिका या आनायनी (आणवणिया) ३. वैदारिणी (वेयारणिया) ४. अनाभोग प्रत्यया (अणाभोग वत्तिया) ५. अनवकांक्षा प्रत्यया (अणवकंख वत्तिया)। १. नैसृष्टिकी (नेसत्थिया) - राजा आदि की आज्ञा से यंत्र (फव्वारे आदि) द्वारा जल छोड़ने से अथवा धनुष से बाण फेंकने से होने वाली क्रिया नैसृष्टिकी क्रिया है। • गुरु आदि को शिष्य या पुत्र देने से अथवा निर्दोष आहार पानी देने से लगने वाली क्रिया नैसृष्टिकी क्रिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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