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________________ ३१३ 000000 अपराध करता ही नहीं यदि कदाचित्त भूल से कोई अपराध हो जाय तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है । ३. विनय सम्पन्न - विनयवान् । विनयवान् साधु बड़ों की बात मान कर हृदय से आलोचना कर लेता है। स्थान १० ४. ज्ञान सम्पन्न - ज्ञानवान् मोक्ष की आराधना के लिये क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस बात को भली प्रकार समझ कर वह आलोचना कर लेता है । ५. दर्शन सम्पन्न - श्रद्धालु। भगवान् के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण वह शास्त्रों में बताई हुई प्रायश्चित्त से होने वाली शुद्धि को मानता है और आलोचना कर लेता है। उत्तम चारित्र वाला । अपने चारित्र को शुद्ध रखने के लिए वह दोषों की ६. चारित्र सम्पन्न आलोचना करता है। ७. क्षान्त - क्षमा वाला। किसी दोष के कारण गुरु से भर्त्सना या फटकार आदि मिलने पर वह क्रोध नहीं करता । अपना द्रोष स्वीकार करके आलोचना कर लेता है। ८. दान्त - इन्द्रियों को वश में रखने वाला । इन्द्रियों के विषयों में अनासक्त व्यक्ति कठोर से कठोर प्रायश्चित्त को भी शीघ्र स्वीकार कर लेता है। वह पापों की आलोचना भी शुद्ध हृदय से करता है । ९. अमायी - कपट रहित। अपने पापों को बिना छिपाए खुले दिल से आलोचना करने वाला सरल व्यक्ति । 4 - १०. अपश्चात्तापी- आलं चना लेने के बाद जो पश्चात्ताप न करे। अर्थात् मन में ऐसा विचार न करे कि इस दोष का गुरुमहाराज को तो पता ही नहीं था इसलिये मैंने व्यर्थ में आलोचना की । आलोचना देने योग्य साधु के दस गुण - दस गुणों से युक्त साधु आलोचना देने योग्य होता है । 'आचारवान्' आदि आठ गुण इसी भाग के आठवें स्थानक में दे दिये गए हैं। ९. प्रियधर्मी - जिस को धर्म प्यारा हो । १०. दृढधर्मी - जो धर्म में दृढ हो । दस प्रायश्चित्त - अतिचार की विशुद्धि के लिए आलोचना करना या उस के लिए गुरु के कहे अनुसार तपस्या आदि करना प्रायश्चित्त है। इसके दस भेद हैं १. आलोचनार्ह - संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट . करना आलोचना है। जो प्रायश्चित्त आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय उसे आलोचनार्ह या आलोचना प्रायश्चित्त कहते हैं । Jain Education International २. प्रतिक्रमणार्ह - प्रतिक्रमण के योग्य । प्रतिक्रमण अर्थात् दोष से पीछे हटना तथा लगे हुए दोष के लिये "मिच्छामि दुक्कडं" देना और भविष्य में न करने की प्रतिज्ञा करना । जो प्रायश्चित्त For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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