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________________ ३०८ श्री स्थानांग सूत्र कठिन शब्दार्थ - उप्पायपव्वए - उत्पात पर्वत, पमाणं - प्रमाण ।। भावार्थ - असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा, चरमेन्द्र के तिगिंच्छिकूट उत्पातपर्वत मूल भाग में एक हजार बाईस योजन चौड़ा है । असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र के सोम लोक-पाल के सोमप्रभ उत्पातपर्वत दस सौं योजन यानी एक हजार योजन ऊंचा है, दस सौ गाऊ ऊंडा है और मूल भाग में दस सौ योजन चौड़ा है । असुरकुमारों के इन्द्र असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र के यम लोकपाल के यमप्रभ उत्पात पर्वत का वर्णन भी इसी तरह कर देना चाहिए । इसी प्रकार वरुण और वैश्रमण का भी कथन कर देना चाहिए । वैरोचनेन्द्र वैरोचन राजा बलीन्द्र का रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत मूल में एक हजार बाईस योजन चौड़ा है । बलीन्द्र के सोम लोकपाल का कथन चमरेन्द्र के लोकपाल के समान कह देना चाहिए । नागकुमारों के इन्द्र नागकुमारों के राजा धरणेन्द्र का धरणप्रभ उत्पातपर्वत दस सौ योजन ऊंचा है । दस सौ गाऊ धरती में ऊंड़ा है और मूल में दस सौ योजन चौड़ा है । नाग कुमारों के इन्द्र नागकुमारों के राजा धरणेन्द्र के कालवास लोकपाल का महाकालप्रभ उत्पात पर्वत दस. सौ योजन ऊंचा है । दस सौ गाऊ धरती में ऊंडा है और दस सौ योजन मूल में चौड़ा है । इसी तरह शंखपाल तक का कथन कर देना चाहिए । जिस प्रकार धरणेन्द्र का कथन किया है उसी प्रकार भूतानन्द का और उसके लोकपालों का तथा यावत् स्तनितकुमार और उनके लोकपालों तक का कथन कर देना चाहिए । उन सब के उत्पात पर्वतों के नाम उनके नामों के समान ही कहने चाहिए । देवों के इन्द्र देवों के राजा शक्रेन्द्र का शक्रप्रभ उत्पात पर्वत दस हजार योजन ऊंचा है, दस हजार गाऊ धरती में ऊंडा है और मूल भाग में दस हजार योजन चौड़ा है। देवों के इन्द्र देवों के राजा शक्रेन्द्र के सोम लोकपाल का सोमप्रभ उत्पात पर्वत दस हजार योजन ऊंचा, दस हजार गाऊ ऊंडा और मूल में दस हजार योजन चौड़ा है । जिस प्रकार शक्रेन्द्र के उत्पात पर्वत का वर्णन किया है उसी प्रकार अच्युतेन्द्र तक सब इन्द्रों के और उनके सब लोकपालों के उत्पात पर्वतों का कथन कर देना चाहिए । सब के उत्पात पर्वतों का प्रमाण एक समान है। अवगाहना बायर वणस्सइकाइयाणं उक्कोसेणं दस जोयण सयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता। जलचर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं उक्कोसेणं दस जोयण सयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता । उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं उक्कोसेणं एवं चेव । तीर्थकर अन्तर, दस अनन्तक संभवाओ णं अरहाओ अभिणंदणे अरहा दसहिं सागरोवम कोडिसयसहस्सेहिं वीइक्कंतेहिं समुप्पण्णे । दसविहे अणंतए पण्णत्ते तंजहा - णामाणंतए, ठवणाणंतए, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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