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________________ २९० ००० अवहरिंसु, अमणुण्णाई मे सहफरिसरसरूवगंधाई उवहरिंसु, मणुण्णाई मे सद्दफरिसरसरूवगंधाई अवहरइ, अमणुण्णाई मे सद्दफरिसरसरूवगंधाई उवहरड़, मणुणाई मे सहाई जाव गंधाई अवहरिस्सइ, अमणुण्णाई मे सहाई जाव गंधाइ उवहरिस्सइ, मणुण्णाई मे सद्दाइं जाव गंधाई अवहरिंसु वा अवहरइ वा अवहरिस्सइ वा, अमणुण्णाई मे सद्दाइं जाव गंधाइं उवहरिसु वा उवहरइ वा उवहरिस्सइ वा । मे मणुण्णामणुण्णाई सद्दाई जाव गंधाई अवहरिंसु, अवहरइ, अवहरिस्सइ, उवहरिंसु, उवहरइ, उवहरिस्सइ । अहं च णं आयरियउवज्झायाणं सम्मं वट्टामि ममं य णं आयरियउवझाया मिच्छं पडिवण्णा । 1 संयम - असंयम, संवर - असंवर दसविहे संजमे पण्णत्ते तंजहा पुढविकाइय संजमे जाव वणस्सइकाइय संजमे, इंदिय संजमे, तेइंदिय संजमे, चउरिदिय संजमे, पंचिंदिय संजमे, अजीवकाय संजमे । दसविहे असंजमे पण्णत्ते तंजहा - पुढविकाइय असंजमे, आउकाइय असंजमे, ते काय असंजमे, वाउकाइय असंजमे, वणस्सइ काइय असंजमे जाव अजीवकाय असंजमे । दसविहे संवरे पण्णत्ते तंजहा- सोइंदिय संवरे जाव फासिंदिय संवरे, मण संवरे, वय संवरे, काय संवरे, उवगरण संवरे, सूईकुसग्ग संवरे । दसविहे असंवरे पण्णत्ते तंजा - सोइंदिय असंवरे जाव सूई कुसग्ग असंवरे ॥ ११६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अच्छिण्णे अछिन्न, चलेज्जा - चलित होता है, परिणामेजमाणे परिणमित होता हुआ, उस्ससिज्जमाणे उच्छ्वास लेते हुए, णिस्ससिज्जमाणे - नि:श्वास लेते हुए, णिज्जरिज्जमाणे- निर्जरित करते हुए, विउविजमाणे वैक्रिय शरीर बनाते हुए, परियारिज्जमाणे - परिचारणा करते हुए, उवगरण संवरे उपकरण संवर, सूईकुसग्ग संवरे - सूची कुशाग्र मात्र संवर । भावार्थ - अछिन्न यानी शरीर से सम्बन्धित पुद्गल दस कारणों से चलित होता है । यथा - खाया जाता हुआ पुद्गल चलित होता है । परिणमित होता हुआ पुद्गल चलित होता है । उच्छ्वास लेते हुए, निःश्वास लेते हुए, वैक्रिय शरीर बनाते हुए, परिचारणा यानी मैथुन सेवन करते हुए, पुद्गल चलित होता है । यक्षाधिष्ठित शरीर होने पर पुद्गल चलित होता है । शरीर में रही हुई वायु से प्रेरित हुआ पुद्गल चलित होता है । दस कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है । यथा- मेरे मनोज्ञ शब्द स्पर्श रस, रूप और गन्ध को इसने ले लिये हैं, इस विचार से क्रोध की उत्पत्ति होती है । अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप गन्ध का मेरे साथ इसने संयोग करवाया है, इस विचार से क्रोध की उत्पत्ति होती है । Jain Education International श्री स्थानांग सूत्र - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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