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________________ स्थान ८ 00000000 अष्टमिका प्रतिमा कहते । प्रथम अष्टक में एक दत्ति भोजन की और एक दत्ति पानी की, दूसरे अष्टक में दो दत्ति भोजन दो दत्ति पानी इस प्रकार आठवें अष्टक में आठ दत्ति भोजन की और आठ दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है। पहले अष्टक में आठ, दूसरे अष्टक में १६, तीसरे में २४, चौथे में ३२, पांचवें में ४०, छठे में ४८, सातवें में ५६ और आठवें में ६४ इस प्रकार कुल २८८ दत्तियाँ भोजन और पानी की होती है। यहाँ जाव शब्द से निम्न शब्दों का ग्रहण हुआ है - अहाकप्पा अहातच्चा सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराहिया - इनका अर्थ क्रमश: इस प्रकार है यथाकल्प - आचार के अनुरूप, यथातथ्य-तत्त्व के अनुसार, सम्यक् प्रकार से शरीर के द्वारा स्पर्श करना, उपयोग में लाकर उसकी रक्षा करना, अतिचारों से शुद्धिकरण करना, कीर्ति द्वारा उसे पूर्ण करना, सम्यक् आराधना करना और गुरुजनों की आज्ञानुसार प्रतिमा का पालन करना। जिन जीवों को नरक में उत्पन्न हुए एक ही समय हुआ है वे 'प्रथम समय नैरयिक' कहलाते हैं और जिनको उत्पन्न हुए अनेक समय हुआ है वे 'अप्रथम समय नैरयिक' कहलाते हैं। इसी तरह तिर्यंच, मनुष्य और देवों के विषय में भी समझना चाहिये । २४३ 1000 आठ प्रकार के संयम के विशेष वर्णन के लिये भगवती सूत्र शतक २५ देखें । पृथ्वियाँ आठ कही है। सात नरकों के अलावा आठवी पृथ्वी ईषत्प्राग्भारा है। जिसका मध्य भाग आठ योजन मोटा है। इसके आठ गुण-निष्पन्न नाम बताये हैं। जिनके अर्थ भावार्थ में दे दिये गये हैं। प्रमाद नहीं करने योग्य आठ कर्त्तव्य Jain Education International अहिं ठाणेहिं सम्मं संघडियव्वं, जझ्यव्वं, परक्कमियव्वं, अस्सिं च णं अट्ठे णो पमाएयव्वं भवइ - असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणयाए अब्भुद्वेयव्वं भवइ, सुयाणं धम्माणं ओगिण्हयाए ओवहारणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, पावाणं कम्माणं संजमेणं अकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणयाए विसोहणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, असंगिहीय परियणस्स संगिण्हयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, सेहं आयारगोयरगहणयाए अब्भुटुयव्वं भवइ, गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, साहम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सिओस्सिओ अपक्खग्गाही मज्झत्थभाव भूए कहण्णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमतुमा उवसामणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवइ ॥ ९८ ॥ कठिन शब्दार्थ - संघडियव्वं - अप्राप्त को प्राप्त करना चाहिये, परक्कमियव्वं पराक्रम करना चाहिये, अब्भुद्वेयव्वं - उद्यम करना चाहिये, सुणणयाए सुनने के लिए, विंगिचणयाए - निर्जरा करने - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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