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________________ वीर्य पूर्व की आठ वस्तु और आठ चूलिका वस्तु कही गई हैं । गतियाँ, काकिणी रत्न स्थान ८ अट्ठ गईओ पण्णत्ताओ तंजहा णिरयगई, तिरियगई, मणुस्सगई, देवगई, सिद्धिगई, गुरुगई, पणोल्लणगई, पब्भारगई । गंगा सिंधु रत्ता रत्तवई देवीणं दीवा अट्ठट्ठजोयणाई आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ता । उक्कामुह मेहमुह विज्जुमुह विज्जुदंत दीवाणं दीवा अट्ठट्ठ जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । कालोए णं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साइं चक्कवाल विक्खंभेणं पण्णत्ते । अब्धंतरपुक्खरद्धे दीवे णं अट्ठ जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते, एवं बाहिर पुक्खरद्धे वि । एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंत चक्कवट्टिस्स अट्ठसोवण्णिए काकिणीरयणे छत्तले दुवालसंसिए अटुकण्णिए अहिगरणिसंठिए पण्णत्ते । मागहस्स णं जोयणस्स अट्ठ धणुसहस्साइं णिधत्ते पण्णत्ते ॥ ९३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - गुरुगई - गुरु गति, पणोल्लणगई प्रणोदन गति, पब्भारगई- प्राग्भार गति, चक्कवाल विक्खंभेणं - चक्रवाल विष्कम्भ, अट्ठसोवण्णिए आठ सुवर्ण प्रमाण वाला, छत्तले - छह तलों वाला, दुवालसंसिए बारह कोणों वाला, अट्ठकण्णिए आठ कर्णिका वाला, अहिगरणिसंठिए - सुनार की एरण के समान संस्थान वाला, णिधत्ते निश्चित्त प्रमाण । - - Jain Education International - - - भावार्थ आठ गतियाँ कही गई हैं । यथा नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति, सिद्धिगति, गुरुगति - परमाणुओं की स्वाभाविक गति, प्रणोदनगति दूसरों की प्रेरणा से होने वाली गति, प्राग्भारगति अधिक भार से नीचे की तरफ होने वाली गति । गङ्गा, सिन्धु, रक्ता, और रक्तवती इन नदियों की अधिष्ठात्री देवियों के द्वीप आठ, आठ योजन के लम्बे चौड़े कहे गये हैं । उल्कामुख द्वीप, मेघमुख द्वीप, विद्युत्मुख द्वीप और विद्युतदंत द्वीप, आठ सौ आठ सौ योजन के लम्बे चौड़े कहे गये हैं । कालोद समुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ आठ लाख योजन का कहा गया है । आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध द्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ आठ लाख योजन का कहा गया है । इसी तरह बाहरी पुष्करार्द्ध द्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ भी आठ लाख योजन का है । २३३ - = For Personal & Private Use Only प्रत्येक चक्रवर्ती का काकिणी रत्न आठ सुवर्ण प्रमाण वाला, छह तलों वाला, बारह कोणों वाला, आठ कर्णिका वाला और सुनार की एरण के समान आकार वाला होता है । मगधदेश के योजन का निश्चित प्रमाण आठ हजार धनुष कहा गया है । 'तिमिस्त्रगुहा और खण्डप्रपातगुफा, वक्षस्कार पर्वत, आठ विजय जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाइं www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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