SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ८ आदि स्वरों तथा व्यञ्जनों का पूरा ध्यान रखना घोषविशुद्धि है। इसी तरह गाथा आदि का उच्चारण करते समय षडज्, ऋषभ, गान्धार आदि स्वरों का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। उच्चारण की शुद्धि के बिना अर्थ की शुद्धि नहीं होती और श्रोताओं पर भी असर नहीं पड़ता। ३. शरीर सम्पदा - शरीर का प्रभावशाली तथा सुसंगठित होना ही शरीरसम्पदा है। इसके भी चार भेद हैं - (क) आरोहपरिणाह सम्पन्न - अर्थात् गणी के शरीर की लम्बाई चौड़ाई सुडौल होनी चाहिए। अधिक लम्बाई या अधिक मोटा शरीर होने से जनता पर प्रभाव कम पड़ता है। केशीकुमार और अनाथी मुनि के शरीर सौन्दर्य से ही पहिले पहल महाराजा परदेशी और श्रेणिक धर्म की और झुक गए थे। इससे मालूम पड़ता है कि शरीर का भी काफी प्रभाव पड़ता है। (ख) शरीर में कोई अंग ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे लज्जा हो, कोई अंग अधूरा या बेडौल नहीं होना चाहिए। जैसे काना आदि । (ग) स्थिरसंहनन - शरीर का संगठन स्थिर हो, अर्थात् ढीलाढाला न हो। (घ) प्रतिपूर्णेन्द्रिय अर्थात् सभी इन्द्रियाँ पूरी होनी चाहिए। म ४. वचन सम्पदा - मधुर, प्रभावशाली तथा आदेय वचनों का होना वचन सम्पदा है। इसके भी चार भेद हैं- (क) आदेयवचन अर्थात् गणी के वचन जनता द्वारा ग्रहण करने योग्य हों। (ख) मधुर वचन अर्थात् गणी के वचन सुनने में मीठे लगने चाहिए। कर्णकटु न हों। साथ में अर्थगाम्भीर्य वाले भी हों। (ग) अनिश्रित - क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वशीभूत होकर कुछ नहीं कहना चाहिए। हमेशा शान्त चित्त से सब का हित करने वाला वचन बोलना चाहिए। (घ) असंदिग्ध वचन - ऐसा वचन बोलना चाहिए जिसका आशय बिल्कुल स्पष्ट हो । श्रोता को अर्थ में किसी तरह का सन्देह उत्पन्न न हो । ५. वाचना सम्पदा - शिष्यों को शास्त्र आदि पढ़ाने की योग्यता को वाचना सम्पदा कहते हैं। इसके भी चार भेद हैं- (क) विचयोद्देश अर्थात् किस शिष्य को कौनसा शास्त्र, कौनसा अध्ययन, किस प्रकार पढ़ाना चाहिए? इन बातों का ठीक ठीक निर्देश करना। (ख) विचय वाचना - शिष्य की 'योग्यता के अनुसार उसे वाचना देना। (ग) शिष्य की बुद्धि देखकर वह जितना ग्रहण कर सकता हो उतना ही पढ़ाना। (घ) अर्थनिर्यापकत्व - अर्थात् अर्थ की संगति करते हुए पढ़ाना। अथवा शिष्य जितने सूत्रों को धारण कर सके उतने ही पढ़ाना या अर्थ की परस्पर संगति, प्रमाण, नय, कारक, समास, विभक्ति आदि का परस्पर सम्बन्ध बताते हुए पढ़ाना या शास्त्र के पूर्वा पर सम्बन्ध को अच्छी तरह समझाते हुए सभी अर्थों को बताना । ६. मति सम्पदा - मतिज्ञान की उत्कृष्टता को मति सम्पदा कहते हैं। इसके चार भेद हैं अवग्रह, ईवा, अवाय और धारणा । अवग्रह आदि प्रत्येक के छह छह भेद हैं। Jain Education International २१९ ७. प्रयोगमति सम्पदा ( अवसर का जानकार) - शास्त्रार्थ या विवाद के लिए अवसर आदि की जानकारी को प्रयोगमति सम्पदा कहते हैं। इसके चार भेद हैं- (क) अपनी शक्ति को समझ कर . For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy