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________________ १८८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 गन्ध । केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक सर्वज्ञ धर्मास्तिकाय से लेकर गन्ध तक इन सातों को सर्वभाव से जानते और देखते हैं। वऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सात हाथ ऊंचे शरीर वाले थे। ___ सात विकथाएं कही गई हैं यथा - स्त्रीकथा - स्त्री की जाति, कुल, रूप और वेश सम्बन्धी कथा करना । भक्तकथा - भोजन सम्बन्धी कथा करना । राजकथा - राजा की ऋद्धि आदि की कथा करना । मृदुकारुणिकी - पुत्रादि के वियोग से दुःखी माता आदि के करुणक्रन्दन से भरी हुई कथा को मृदुकारुणिकी कथा कहते हैं । दर्शनभेदिनी - दर्शन यानी समकित को दूषित करने वाली कथा कस्ना । चारित्रभेदिनी - चारित्र की तरफ उपेक्षा पैदा करने वाली एवं चारित्र को दूषित करने वाली कथा करना। साधु को ये विकथाएं नहीं करनी चाहिए क्योंकि विकथाएं संयम को दूषित करती हैं । गण यानी गच्छ में आचार्य और उपाध्याय के सात अतिशय कहे गये हैं यथा - आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर ही धूलि न उडे इस प्रकार से दूसरे साधुओं से अपने पैरों का प्रस्फोटन एवं प्रमार्जन कराते हैं यानी पूंजवाते हैं और धूलि दूर करवाते हैं, ऐसा करते हुए भी वे भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं यावत् आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात या दो रात तक अकेले रहते हुए भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं । जैसे पांचवें ठाणे में कहे हैं वे पांच अतिशय यहां कह देने चाहिए । छठा अतिशय यह है कि आचार्य और उपाध्याय दूसरे साधुओं की अपेक्षा प्रधान और उज्वल वस्त्र रखते हुए भी वे भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं । सातवां अतिशय यह है कि आचार्य और उपाध्याय दूसरे साधुओं की अपेक्षा कोमल और स्निग्ध आहार पानी का सेवन करते हुए वे भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं। सात प्रकार का संयम कहा गया है यथा - पृथ्वीकायसंयम, अप्कायसंयम, तेउकायसंयम, वायुकायसंयम, वनस्पतिकायसंयम, त्रसकायसंयम और अजीवकायसंयम यानी पुस्तक आदि निर्जीव पदार्थों को उपयोग पूर्वक लेना और रखना । सात प्रकार का असंयम कहा गया है यथा - पृथ्वीकाय असंयम यावत् त्रसकाय असंयम और अजीवकाय असंयम । सात प्रकार का आरम्भ कहा गया है यथापृथ्वीकाय आरम्भ यावत् अजीवकाय आरम्भ । इसी प्रकार अनारम्भ, सारम्भ, असारम्भ, समारम्भ और असमारम्भ, इन प्रत्येक के उपरोक्त सात सात भेद होते हैं । . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सात प्रकार के दर्शन कहे गये हैं। सम्यग्दर्शन यानी सम्यक्त्व, मिथ्यादर्शन यानी मिथ्यात्व और सम्यग्-मिथ्यादर्शन यानी मिश्र दर्शन । ये तीनों प्रकार के दर्शन तीन प्रकार के दर्शन मोहनीय के क्षय, क्षयोपशम और उदय से होते हैं। सम्यग्दर्शन त्रिविध दर्शन मोहनीय के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से होता है जबकि मिथ्यादर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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