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________________ स्थान ७ १७७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन प्रकार का पदय और दो भाषाओं को जो जानता है वह सुशिक्षित पुरुष रंगशाला यानी गायनशाला में भलीप्रकार गा सकता है ।। २२ ॥ भीत - डरते हुए गाना। द्रुत - जल्दी जल्दी गाना। शब्दों को छोटे बना कर गाना अथवा सांस लेकर जल्दी जल्दी गाना। उत्ताल - ताल से आगे बढ़ कर या आगे पीछे ताल देकर गाना। काकस्वर - कौए की तरह कर्णकटु और अस्पष्ट स्वर से गाना। अनुनास - नाक से गाना। ये गीत के छह दोष होते हैं ।। २३॥ पूर्ण - स्वर आरोह, अवरोह आदि से पूर्ण गाना। रक्त - गाई जाने वाली राग से अच्छी तरह गाना। परिष्कृत अलंकृत - दूसरे दूसरे स्पष्ट और शुभस्वरों से मण्डित। व्यक्त - व्यञ्जन और स्वरों की स्पष्टता के कारण स्पष्ट अविघुष्ट - रोने की तरह जहाँ स्वर बिगड़ने न पावे ऐसा गाना। मधुर – बसन्त ऋतु में मतवाली कोयल के शब्द की तरह मधुर। सम - ताल, स्वर आदि से ठीक नपा तुला गाना और सुकुमार यानी आलाप के कारण जिसकी लय बहुत कोमल बन गई हो ऐसा सुललित रूप से गाना। ये गीत के आठ गुण होते हैं ।। २४॥ संगीत में उपरोक्त गुणों का होना आवश्यक है । इन गुणों के बिना संगीत केवल विडम्बना है । इनके सिवाय संगीत के और भी बहुत से गुण हैं । यथा - उरोविशुद्ध - जो स्वर वक्षस्थल में विशुद्ध हो उसे उरोविशुद्ध कहते हैं । कण्ठविशुद्ध - जो स्वर गले में फटने न पावे और स्पष्ट तथा कोमल रहे उसे कण्ठविशुद्ध कहते हैं । शिरोविशुद्ध - मूर्धा को प्राप्त होकर भी जो स्वर नासिका से मिश्रित नहीं होता है उसे शिरोविशुद्ध कहते हैं । छाती, कण्ठ और मूर्धा में श्लेष्म या चिकनाहट के कारण स्वर स्पष्ट निकलता है और बीच में नहीं टूटता है इसी को उरोविशुद्ध, कण्ठविशुद्ध और शिरोविशुद्ध कहते हैं । मृदु - जो राग मृदु अर्थात् कोमल स्वर से गाया जाता है उसे मृदु कहते हैं । रिभित या रिङ्गित - जहाँ आलापं के कारण स्वर खेल सा कर रहा हो उसे रिभित या रिङ्गित कहते हैं. । पदबद्ध - गाये जाने वाले पदों की जहाँ विशिष्ट रचना हो उसे पदबद्ध कहते हैं । समतालप्रत्युत्क्षेप - जहाँ नर्तकी का पाद निक्षेप और ताल आदि सब एक दूसरे से मिलते हों उसे समताल प्रत्युत्क्षेप कहते हैं । सप्तस्वरसीभरजहाँ सातों स्वर अक्षर आदि से बराबर मिलान खाते हों उसे सप्तस्वरसीभर कहते हैं । इत्यादि अनेक गुणों से युक्त गीत होना चाहिए ।। २५॥ .. गीत के लिए बनाये जाने वाले पदय में आठ गुण होने चाहिएं । वे ये हैं - निर्दोष यानी सूत्र के ३२ दोष रहित, सारवत् यानी अर्थ युक्त, हेतुयुक्त यानी अर्थबोध कराने वाले कारणों से युक्त । अलङ्कतकाव्य के अलङ्कारों से युक्त। उपनीत - उपसंहार युक्त। सोंपचार - उत्प्रास युक्त अथवा अनिष्ठुर, अविरुद्ध और अलज्जनीय । मित यानी पद और अक्षरों से परिमित और मधुर यानी शब्द, अर्थ और अभिधेय इन तीन की अपेक्षा मधुर होना चाहिए ।। २६॥ .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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