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________________ १६६ श्री स्थानांग सूत्र ००००० 00000 00000 वाले साधु को मकान मालिक के आयतन तथा दूसरे दोषों को टालते हुए नीचे लिखी सात प्रतिमाएं. यथाशक्ति अंगीकार करनी चाहिए। १. धर्मशाला आदि में प्रवेश करने से पहिले ही यह सोच ले कि "मैं अमुक प्रकार का अवग्रह लूंगा। इसके सिवाय न लूंगा" यह पहली प्रतिमा है। २. "मैं सिर्फ दूसरे साधुओं के लिए स्थान आदि अवग्रह को ग्रहण करूंगा और स्वयं दूसरे साधु द्वारा ग्रहण किए हुए अवग्रह वाले स्थान में ठहरूंगा।" यह दूसरी प्रतिमा है। ३. "मैं दूसरे के लिए अवग्रह की याचना करूंगा किन्तु स्वयं दूसरे द्वारा ग्रहण किए अवग्रह को स्वीकार नहीं करूंगा ।" गीला हाथ जब तक सूखता है उतने काल से लेकर पांच दिन रात तक के समय को लन्द कहते हैं। लन्द तप को अंगीकार कर के जिनकल्प के समान रहने वाले साधु यथालन्दिक कहलाते हैं। वे दो तरह के होते हैं - गच्छप्रतिबद्ध और स्वतंत्र शास्त्रादि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब कुछ साधु एक साथ मिल कर रहते हैं तो उन्हें गच्छप्रतिबद्ध कहा जाता है। तीसरी प्रतिमा प्रायः गच्छप्रतिबद्ध साधु अंगीकार करते हैं। वे आचार्य आदि जिन से शास्त्र पढ़ते हैं उनके लिए तो वस्त्रपात्रादि अवग्रह ला हैं पर स्वयं किसी दूसरे का लाया हुआ ग्रहण नहीं करते। ४. मैं दूसरे के लिए अवग्रह नहीं मागूंगा पर दूसरे के द्वारा लाये हुए का स्वयं उपभोग कर लूंगा । जो साधु जिनकल्प की तैयारी करते हैं और उग्र तपस्वी तथा उग्र चारित्र वाले होते हैं, वे ऐसी प्रतिमा-: प्रतिज्ञा लेते हैं । तपस्या आदि में लीन रहने के कारण वे अपने लिए भी मांगने नहीं जा सकते। दूसरे साधुओं द्वारा लाये हुए को ग्रहण करके अपना काम चलाते हैं। ५. मैं अपने लिए तो अवग्रह याचूंगा, दूसरे साधुओं के लिए नहीं। जो साधु जिनकल्प ग्रहण करके अकेला विहार करता है, यह प्रतिमा (प्रतिज्ञा) उसके लिए है। ६. जिससे अवग्रह ग्रहण करूंगा उसीसे दर्भादिक संथारा भी ग्रहण करूंगा। नहीं तो उत्कुटुक अथवा किसी दूसरे आसन से बैठा हुआ ही रात बिता दूंगा। यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक आदि साधुओं के लिए है। ७. सातवीं प्रतिमा भी छठी सरीखी ही है। इसमें इतनी प्रतिज्ञा अधिक है 'शिलादिक संस्तारक बिछा हुआ जैसा मिल जायगा वैसा ही ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं।' यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक आदि साधुओं के लिए है। सात सप्तकक १. स्थान सप्तैकक, २. नैषेधिकी सप्तैकक, ३. उच्चार प्रस्रवण विधि सप्तैकक, ४. शब्द सप्तैकक, ५. रूप सप्तैकक, ६. परक्रिया सप्तैकक, ७. अन्योन्य क्रिया सप्तैकक । इनका विस्तृत वर्णन आचाराङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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