SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ६ दिशाएँ छ हिसाओ पण्णत्ताओ तंजहा - पाईणा, पडीणा, दाहिणा, उईणा, उड्डा, अहा । छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तइ तंजहा पाईणाए जाव अहाए । एवमागई, वक्कंती, आहारे, वुड्डी, णिवुड्डी, विगुव्वणा, गइपरियाए, समुग्धाए, कालसंजोगे, दंसणाभिगमे, णाणाभिगमे, जीवाभिगमे, अजीवाभिगमे । एवं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाण वि मणुस्साण वि । आहार करने के कारण छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारमाणे णाइक्कमइ तंजहा - वेयण वेयावच्चे, ईरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए, छट्टं पुण धम्म चिंताए । १॥ आहार त्याग के कारण - Jain Education International : छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिंदमाणे णाइक्कमइ तंजहा आयंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए । पाणिदया तव हेडं, सरीर वुच्छेयणट्ठाए ॥ २ ॥ ४७ ॥ कठिन शब्दार्थ छ हिसाओ - छह दिशाएं, उईणा - उत्तर, वक्कंती - व्युत्क्रान्ति-उत्पत्ति, वुड्डी - वृद्धि, णिवुड्डी- निर्वृद्धि, विगुव्वणा विकुर्वणा, गइपरियाए - गति पर्याय, कालसंजोगे - काल संयोग, ईरियट्ठाए - ईर्यार्थ - ईर्यासमिति की शुद्धि के लिए, पाणवत्तियाए - प्राण प्रत्ययार्थ : प्राणों की रक्षा के लिये, धम्मचिंताए - धर्म चिन्तार्थ, वोच्छिंदमाणे - त्याग करता हुआ, आयंके आतंक, सरीर वुच्छेयणट्ठाए - शरीर व्यवच्छेदार्थ । भावार्थ - छह दिशाएं कही गई हैं यथा- पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व यानी ऊंची दिशा और अधः यानी नीची दिशा । इन्हीं छह दिशाओं में जीव की गति होती है । इसी प्रकार आगति, उत्पत्ति, आहार, वृद्धि, निर्वृद्धि यानी हानि, विकुर्वणा, गतिपर्याय यानी गमन, समुद्घात, कालसंयोग, दर्शनाभिगम यानी सामान्य बोध, ज्ञानाभिगम, जीवाभिगम और अजीवाभिगम । जीवों की ये उपरोक्त १४ बातें छह दिशाओं में होती हैं । इसी तरह एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक और मनुष्यों भी ये १४ बातें छहों दिशाओं में होती हैं । - १२५ 0000 - छह कारणों से आहार करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है यथा - वेदना यानी क्षुधावेदनीय की शान्ति के लिए, वैयावृत्य - अपने से बड़े एवं आचार्यादि की सेवा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy