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________________ स्थान २ उद्देशक २ ८. पर्याप्त दंडक - जो पर्याप्त • नाम कर्म के उदय से पर्याप्त हैं वे पर्याप्तक और जो अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से अपर्याप्त हैं वे अपर्याप्तक कहलाते हैं। ९. संज्ञी दण्डक - जो मन, पर्याप्ति से पर्याप्तक है वह संज्ञी और जो मन पर्याप्ति से अपर्याप्तक है वह असंज्ञी कहलाता है जैसे नारकी के जीव संज्ञी असंज्ञी दोनों प्रकार के कहे गये हैं उसी प्रकार विकलेन्द्रिय (पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौरेन्द्रिय) को छोड़कर वैमानिक दण्डक पर्यन्त कहना चाहिये। किसी किसी प्रति में जाव वाणमंतरा ऐसा पाठ है। इसका अभिप्राय यह समझना चाहिये कि नारकी से लगा कर वाणव्यंतर पर्यन्त असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं परन्तु ज्योतिषी और वैमानिक में उत्पन्न नहीं होते। उनमें असंज्ञीपन का अभाव होने से उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। प्रश्न- विकलेन्द्रिय किसे कहते हैं? उत्तर - विकलेन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है -"विकलानि अपरिपूर्णानि संख्यया इन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः" अर्थ - जो विकल-अपरिपूर्ण संख्या विशिष्ट इन्द्रिय वाले हैं वे विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। यहाँ विकलेन्द्रिय शब्द से एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीव लिये गये हैं। १०. भाषा दंडक - जिन जीवों के भाषा पर्याप्ति का उदय है वे भाषक हैं और जो जीव भाषा पर्याप्ति से अपर्याप्त हैं वे अभाषक कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीव सम्यग् दृष्टि रहित एकान्त मिथ्यादृष्टि होते हैं। बेइन्द्रिय आदि जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व होती है अतः यहाँ एकेन्द्रिय का वर्जन किया है। . १२.. संसार दण्डक - संक्षिप्त-थोड़े भव वाले परित्त संसारी और अनंत भव वाले अनंत संसारी कहलाते हैं। १३. स्थिति दंडक - जिन जीवों की संख्यात् काल समय रूप स्थिति होती है वे संख्येय काल समय स्थितिक कहलाते हैं जैसे दस हजार वर्ष आदि की स्थिति वाले। पल्योपम के असंख्येय भाग आदि की स्थिति वाले असंख्येय काल संमय स्थितिक कहलाते हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर नारकी से लगाकर वाणव्यंतर देव तक के जीव दोनों प्रकार की स्थिति वाले होते हैं। ज्योतिषी और वैमानिक देव असंख्यात काल की स्थिति वाले होते हैं। • यह व्याख्या सामान्य रूप से है क्योंकि अपर्याप्त नाम कर्म के उदय वाला (लब्धि अपर्याप्तक) नैरयिक और देवों में संभव नहीं और प्रस्तुत सत्र में "जाव वेमाणिया" कहा है अतः यहाँ यह लगता है कि जिन जीवों ने स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है ऐसे करण अपर्याप्त नैरयिक और देव अपर्याप्त होते हैं अथवा करण अपर्याप्ति काल में भी अपर्याप्त नाम कर्म का उदय हो, ऐसा संभव लगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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