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________________ ३२ श्री स्थानांग सूत्र १०. नपुंसकलिंग सिद्ध - नपुंसक की आकृति रहते हुए मोक्ष में जाने वाले नपुंसक लिंग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गांगेय अनगार आदि। - ११. स्वलिङ्ग सिद्ध - साधुवेश (रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि) में रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्वलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - जैन साधु । .. १२. अन्यलिङ्ग सिद्ध - परिव्राजक आदि के वल्कल, गेरुएं वस्त्र आदि द्रव्य लिंग में रह कर मोक्ष जाने वाले अन्यलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। परिव्राजक आदि का वेश रहते हुए जैन मुनि आदि को देखने से वीतराग वचनों पर श्रद्धा आ जाए और उसी वेश में केवलज्ञान हो जाए तो यदि आयुष्य लम्बा हो तो अवश्य ही वेश परिवर्तन कर जैन साधु का वेश धारण कर लेते हैं. किन्तु यदि आयुष्य अल्प रह गया हो और वेश परिवर्तन करें उतना समय न हो तो उसी वेश में सिद्ध हो जाते हैं। भावों में तो साधुपणा आ ही जाता है। जैसे - वल्कलचीरी आदि। ...... १३. गृहस्थलिङ्ग सिद्ध - गृहस्थ के वेश में मोक्ष जाने वाले गृहस्थ लिंग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - मरुदेवी माता आदि। भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी भगवान् के दर्शनार्थ हाथी पर बैठकर जा रही थी। उसी समय भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ था। देवता केवलज्ञान . महोत्सव मनाने के लिये आ रहे थे। उनको देखकर मरुदेवी की विचार धारा आध्यात्मिकता की ओर बढ़ी परिणामों की धारा उत्तरोत्तर बढ़ने से क्षपक श्रेणी पर चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। आयुष्य अल्प रहने के कारण हाथी पर से भी उतर न सकी और गृहस्थ के कपड़े भी बदल नहीं सकी और उसी अवस्था में मोक्ष चली गई। इसलिए उनको गृहस्थ लिंग सिद्ध कहा है। भावों में तो मुनिपणा आ ही गया था। १४. एक सिद्ध - एक समय में एक मोक्ष जाने वाले जीव एक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् महावीर स्वामी आदि। १५. अनेक सिद्ध - एक समय में अनेक (एक से अधिक) मोक्ष जाने वाले अनेक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् ऋषभदेव आदि। . प्रथम समय सिद्ध - जिनको सिद्ध हुए पहला समय हुआ है। वे प्रथम समय सिद्ध यावत् अनन्त समय सिद्ध की एक वर्गणा होती है। ___परम्पर सिद्ध - जिनको सिद्ध हुए दो समय से लेकर अनन्त समय हो गए हैं उन्हें परंपर सिद्ध कहते हैं । इनकी भी दो समय से लेकर अनन्त समय पर्यन्त एक-एक वर्गणा जाननी चाहिये। प्रश्न - एक समय में अधिक से अधिक कितने जीव मोक्ष जा सकते हैं ? उत्तर - बत्तीसा, अडयाला, सट्ठी बावत्तरि य बोद्धव्या। चुलसीई छण्णउई उ, दुरहियमढ़त्तर सयं च ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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