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________________ ४०२ श्री स्थानांग सूत्र चार प्रकार के जाति आशीविष कहे गये हैं यथा - वृश्चिक यानी विच्छू जाति आशीविष, मेंढक जाति आशीविष, उरग यानी सर्प जाति आशीविष और मनुष्य जाति आशीविष । हे भगवन्! विच्छू के जाति आशीविष का विषय कितना कहा गया है ? भगवान् उत्तर फरमाते हैं कि अर्द्धभरतप्रमाण मात्र यानी २६३ योजन से कुछ अधिक फैले हुए शरीर को विच्छू जाति का आशीविष अपने विष से विषपरिणत करने में समर्थ है। इतना उसके विष का विषय है। किन्तु इस प्रकार का शरीर प्राप्त करके आज तक इतना विष किसी ने किया नहीं और न करते हैं तथा आगामी काल में भी कोई नहीं करेगा । मेंढक जाति के आशीविष का कितना विषय है? मेंढक जाति का आशीविष सम्पूर्ण भरत क्षेत्र प्रमाण फैले हुए शरीर को अपने विष से विषपरिणत करने में समर्थ है। किन्तु आज तक ऐसा किसी ने न तो किया है, न करता है और न करेगा। उरग जाति आशीविष का कितना विषय है ? उरग जाति आशीविष जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर को अपने विष से विषपरिणत कर सकता है किन्तु ऐसा कभी किसी ने न तो किया है, न करता है और न करेगा। मनुष्य जाति आशीविष का कितना विषय है? मनुष्य जाति आशीविष समय क्षेत्र प्रमाण यानी अढाई द्वीप प्रमाण फैले हुए शरीर को विष से विषपरिणत करने में समर्थ है। इतना उसके विष का विषय है किन्तु कभी किसी ने न तो ऐसा किया है, न करता है और न करेगा। विवेचन - प्रसर्पक - जो भोगादि सुखों के लिए उदयम करते हैं उन्हें प्रसर्पक कहते हैं । प्रसर्पक चार प्रकार के कहे गये हैं। संसारी प्राणी सुखों के भोग की प्राप्ति के लिये और प्राप्त सुखों की रक्षा के लिये दिन रात प्रयत्नशील रहते हैं। भोगों का मुख्य साधन धन है। धन के लोभी मनुष्यों की स्थिति बताते हए टीकाकार कहते हैं धावेइ रोहणं तरइ, सागरं भमइ गिरि निगुंजेसु। । मारेइ बंधव पि हु पुरिसो जो होज (इ) धणलुद्धो॥ अडइ बहुं वहइ भरं, सहइ छुहं पावमायरइ धिट्ठो। कुल सील जाइ पच्चयट्टिइंच लोभहुओ चयइ॥ - जो मनुष्य धन का लोभी होता है वह वनों में घूमता है, पर्वतों पर चढ़ता है, समुद्र यात्रा करता है पर्वत की गुफाओं में भटकता है और भाई को भी मार डालता है। लोभ के वशीभूत हो कर सर्वत्र भटकता है भार को ढोता है, भूख प्यास को सहन करता है। पापाचरण करने में संकोच नहीं करता है लोभ में आसक्त और धृष्ट-निर्लज्ज बना हुआ कुल, शील-सदाचार और जाति की मर्यादा को भी छोड़ देता है। ... सुखोपभोग में आसक्त जीव कर्म बांध कर नरकादि दुर्गतियों में उत्पन्न होता है अतः सूत्रकार नरक आदि चारों गतियों का आहार बताते हैं। नैरयिक जीव चार प्रकार का आहार करते हैं - १. अल्प काल के लिये दाहक होने से अंगारों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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