SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ४ उद्देशक ३ ३५३ वालुओदगसमाणे, सेलोदगसमाणे । कहमोदगसमाणं भावमणुप्पविढे जीवे कालं करेइ रइएसु उववज्जइ, खंजणोदगसमाणं भावमणुप्पविढे जीवे कालं करेइ तिरिक्खजोणिएसु उववजइ, वालुओदंगसमाणं भावमणुष्पविढे जीवे कालं करेइ मणुस्सेसु उववज्जइ, सेलोदगसमाणं भावमणुप्पविट्टे जीवे कालं करेइ देवेसु उववजइ। ___ चत्तारि पक्खी पण्णत्ते तंजहा - रुयसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाममेगे णो रुयसंपण्णे, एगे रुयसंपण्णे विरूवसंपण्णे वि, एगे णो रुयसंपण्णे णो रूवसंपण्णे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - रुयसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाममेगे णो रुयसंपण्णे, एगे रुयसंपण्णे वि रूवसंपण्णे वि, एगे णो रुयसंपण्णे पो रूवसंपण्णे । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - पत्तियं करेमि एगे पत्तियं करेई, पत्तियं करेमि एगे अपत्तियं करेइ, अपत्तियं करेमि एगे पत्तियं करेइ, अपत्तियं करेमि एगे अपत्तियं करेइ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - अप्पणो णाममेगे पत्तियं करेइ णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेइ णो अप्पणो, एगे अप्पणो वि पत्तियं करेइ परस्स वि, एगे णो अपणो पत्तियं करेइ णो परस्स । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - पत्तियं पवेसामि एगे पत्तियं पवेसेइ, पत्तियं पवेसामि एगे अपत्तियं पवेसेइ, अपत्तियं पवेसामि एगे पत्तियं पवेसेइ, अपत्तियं पवेसामि एगे अपत्तियं पवेसेइ। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा- अप्पणो णाममेगे पत्तियं पवेसेइ णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं पवेसेइ णो अप्पणो, एगे अप्पणो वि पत्तियं पवेसेइ परस्स वि, एगे णो अप्पणो पत्तियं पवेसेइ णो परस्स॥१६५॥ . कठिन शब्दार्थ - कद्दमोदए - कर्दमोदक-कीचड़ युक्त जल, खंजणोदए - खंजणोदक-खञ्जन युक्त जल, वालुओदए - बालुकोदक-बालू मिश्रित जल, सेलोदए - शैलोदक-पत्थर पर का जल, अणुप्पविट्टे - रहा हुआ, पक्खी - पक्षी, रुयसंपण्णे - रुत सम्पन्न-मधुर शब्द वाला, रूवसंपण्णे - - रूप संपन्न, पत्तियं - हित। . भावार्थ - चार प्रकार का जल कहा गया है । यथा - कीचड़ युक्त जल, जिसमें निकलना कठिन होता है । खञ्जन यानी दीपक की कालिक जैसा जल जो पैर आदि पर लग जाने पर कुछ लेप करता है, बालू मिश्रित जल जो सूख जाने पर बालू स्वतः नीचे गिर जाती है । शैलोदक यानी पत्थर पर का जल, जिसका स्पर्श मात्र होता है किन्तु लेप नहीं होता है । इसी तरह चार प्रकार का भाव कहा गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy