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________________ स्थान ४ उद्देशक २ ३५१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 स्थान) ही सिद्धायतन कहलाते हैं। सिद्धायतन में न तो सिद्ध भगवान् विराजित है न ही किसी ने वहाँ से सिद्ध गति को प्राप्त किया है अतः सिद्धायतन देव विशेषों के स्थान मात्र हैं, उनका मुक्तात्मा रूप सिद्ध भगवंतों से कोई संबंध नहीं है। ____इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव हुए थे और अन्तिम तीर्थङ्कर वर्धमान् (महावीर) हुए थे। इसी प्रकार इस अवसर्पिणी काल में ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तीर्थङ्कर श्री चन्दानन स्वामी और चौबीसवें तीर्थङ्कर वारिसेन हुए थे। इनमें ऋषभदेव और चन्दाननस्वामी की अवगाहना पांच सौ धनुष थी और अन्तिम तीर्थङ्कर वर्धमान तथा वारिसेन तीर्थङ्कर की अवगाहना सात हाथ की थी। परन्तु यहाँ जो चार प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है उन सब की अवगाहना आगम में पांच सौ धनुष की बतलाई गयी है। इसलिए ये चारों प्रतिमाएँ इन ऋषभदेव आदि भगवन्तों की नहीं है। जैसा कि टीकाकार ने बतलाया है कि ये प्रतिमाएँ और सिद्धायतन शाश्वत हैं। अतः इनको तीर्थङ्कर की प्रतिमाएं मानना आगम के अनुकूल नहीं है। यह तो नन्दीश्वर द्वीप की रचना है वैसी रचना का वर्णन आगमकारों ने किया है। प्रेक्षागृहमण्डप - जहाँ बैठ कर दूर दूर की वस्तुओं को देखा जाता है उन मण्डपों को प्रेक्षागृह मण्डप कहते हैं। ___ रतिकर पर्वत - जो पर्वत देव देवियों के रमणीय क्रीडा स्थल हैं उन्हें रतिकर पर्वत कहा जाता सत्य, आजीविक तप, संयम त्याग अकिंचनता . ___ चउव्विहे सच्चे पण्णत्ते तंजहा - णामसच्चे, ठवणसच्चे, दव्यसच्चे, भावसच्चे। आजीवियाणं चउविहे तवे पण्णत्ते तंजहा - उग्गतवे, घोरतवे, रसणिजूहणया, जिब्भिंदियपडिसंलीणया । चउबिहे संजमे पण्णत्ते तंजहा - मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । चउव्विहे चियाए पण्णत्ते तंजहा - मणचियाए वइचियाए कायचियाए उवगरणचियाए। चउव्विहा अकिंचणया पण्णत्ता तंजहा-मणअकिंचणया, वइअकिंचणया, कायअकिंचणया, उवगरण अकिंचणया॥१६४॥ ॥इति द्वितीयोद्देशकः सम्पूर्णः ॥.. कठिन शब्दार्थ - सच्चे - सत्य, आजीवियाणं - आजीविक-गोशालक के मत में, उग्गतवे - उग्र तप, घोरतवे - घोर तप, रसणिज्जूहणया - रस नियूहनता-घृत आदि रसों का त्याग, जिभिंदिय पडिसंलीणया - जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता, उवगरणसंजमे - उपकरण संयम, चियाए - त्याग, . अकिंचणया - अकिञ्चनता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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