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________________ स्थान ४ उद्देशक २ 0000000000 २. उदीरणोपक्रम - विपाक अर्थात् फल देने का समय न होने पर भी कर्मों को भोगने के लिए प्रयत्न विशेष से उन्हें उदय अवस्था में प्रवेश कराना उदीरणा है। उदीरणा के प्रारम्भ को उदीरणोपक्रम कहते हैं । ३. उपशमनोपक्रम - कर्म उदय, उदीरणा, निधत्त करण और निकाचना करण के अयोग्य हो जायें, इस प्रकार उन्हें स्थापन करना उपशमना है। इसका आरम्भ उपशमनोपक्रम हैं। इसमें अपवर्तन, उद्वर्त्तन और संक्रमण ये तीन करण होते हैं। ४. विपरिणामनोपक्रम - सत्ता, उदय, क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्त्तना, अपवर्त्तना आदि द्वारा कर्मों परिणाम को बदल देना विपरिणामना है। अथवा गिरिनदीपाषाण की तरह स्वाभाविक रूप से या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि से अथवा करण विशेष से कर्मों का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदल जाना विपरिणामना है। इसका उपक्रम (आरम्भ) विपरिणामनोपक्रम कहलाता है | संक्रम (संक्रमण) की व्याख्या और उसके भेद जीव जिस प्रकृति को बांध रहा है। उसी विपाक में वीर्य विशेष से दूसरी प्रकृति के दलिकों (कर्म पुद्गलों) को परिणत करना संक्रम कहलाता है । 00 जिस वीर्य विशेष से कर्म एक स्वरूप को छोड़ कर दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त करता है। उस वीर्य विशेष का नाम संक्रमण है। इसी तरह एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण है। जैसे मति ज्ञानावरणीय का श्रुत ज्ञानावरणीय अथवा श्रुत ज्ञानावरणीय का मति ज्ञानावरणीय कर्म रूप बदल जाना ये दोनों कर्म प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म के भेद होने से आपस में सजातीय हैं। संक्रम के चार भेद हैं - १. प्रकृति संक्रम २. स्थिति संक्रम ३ अनुभाग संक्रम ४. प्रदेश संक्रम। निधत्त की व्याख्या और भेद उद्वर्त्तना और अपवर्तना करण के सिवाय विशेष करणों के अयोग्य कर्मों को रखना निधत्त कहा जाता है। निधत्त अवस्था में उदीरणा, संक्रमण वगैरह नहीं होते हैं। तपा कर निकाली हुई लोह शलाका के सम्बन्ध के समान पूर्वबद्ध कर्मों को परस्पर मिलाकर धारण करना - निधत्त कहलाता है। इसके भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से चार भेद होते हैं। निकाचित की व्याख्या और भेद - जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चय ही भोगा जाता है। जिन्हें बिना भोगे छुटकारा नहीं होता। वे निकाचित कर्म कहलाते हैं। निकाचित कर्म में कोई भी करण नहीं होता । तपा कर निकाली हुई लोह शलाकायें (सुइयें) घन से कूटने पर जिस तरह एक हो जाती हैं। उसी प्रकार इन कर्मों का भी आत्मा के साथ गाढ़ा सम्बन्ध हो जाता है। निकाचित कर्म के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद हैं। Jain Education International ३३१ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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