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________________ १२ 000 श्री स्थानांग सूत्र 0000 करने वाला चेतन तत्त्व जीव है और ज्ञानादि पर्यायों में सतत परिणमन करने वाला चेतन तत्त्व आत्मा है। जो जीर्ण शीर्ण स्वभाव वाला है वह शरीर है। प्रस्तुत सूत्र में जीव के एकत्व का हेतु प्रत्येक शरीर बतलाया गया है अर्थात् प्रत्येक शरीर नाम कर्म के उदय से प्रत्येक शरीर में एक जीव होता है। भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय अपने अपने उत्पत्ति स्थान में जीवों द्वारा जो भवधारणीय वैक्रिय शरीर की रचना की जाती है वह एक ही प्रकार की होती है। इसीलिये सूत्रकार ने अपरियाइत्ता पद ग्रहण किया है। जिससे स्पष्ट होता है कि भवधारणीय वैक्रिय शरीर बनाते समय बाहर के पुद्गलों की आवश्यकता नहीं रहती है जबकि उत्तरवैक्रिय शरीर बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना नहीं बनता है । - शंका- बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करने से ही उत्तरवैक्रिय होता है यह कैसे माना जाय ? समाधान - भगवती सूत्र में उत्तरवैक्रिय का वर्णन करते हुए इस प्रकार कथन किया गया है. "देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू .. एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । देवे णं भंते ! बाहिर पोग्गलए परियाइत्ता पभू ? हंता पभू ।" - हे भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महानुभाव देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण न करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। हे भगवन् ! देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ है ? हां गौतम ! समर्थ है। इससे स्पष्ट होता है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करने से ही उत्तरवैक्रिय होता है। मन - 'मन्यते अननेति मनः' - जिससे मनन किया जाता है वह मन है। मनन रूप लक्षण सामान्य रूप से मन मात्र का है अतः मनं एक है। 1 काय व्यायाम - शरीर का जो व्यापार है वह काय व्यायाम कहलाता है। वह औदारिक आदि शरीर से जुड़े आत्मा के वीर्य की परिणति विशेष है । विगताच 'वि' का अर्थ विगत नाश प्राप्त और 'अर्चा' का अर्थ शरीर - विगताच अर्थात् मृतक का शरीर । वियच्चा की संस्कृत छाया 'विवर्चा' भी बनती है जिसका अर्थ है . विशिष्ट उत्पत्ति की रीति अथवा विशिष्ट शोभा, जो सामान्य से एक है। - गति आगति - गति का अर्थ है - गमन । जीव का वर्तमान भव से आगामी भव में जाना गति कहलाता है। आगति का अर्थ है। आगमन। जीव का पूर्वभव से वर्तमान भव में आना आगति कहलाता है। - तर्क - • ईहा से उत्तरवर्ती और अवाय से पूर्ववर्ती विमर्श को तर्क कहा जाता है। जैसे कि Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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