SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री स्थानांग सूत्र करना । शूल, सिरदर्द आदि रोग आतङ्क के होने पर उसका वियोग कब हो इस प्रकार चिन्ता करना । सेवन किये हुए कामभोगों की प्राप्ति होने पर उनका कभी भी वियोग न हो शरीर में रोग आने से मेरे कामभोग छूट न जाए इस प्रकार की चिन्ता करना । आर्त्तध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं यथा क्रन्दनता यानी उच्च स्वर से रोना और चिल्लाना, शोचनता यानी आंखों में आंसू लाकर दीनभाव धारण करना, तेपनता यानी आंसू गिराना और परिदेवनता यानी बारबार क्लिष्ट भाषण करना, विलाप करना । रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है यथा हिंसानुबन्धी यानी प्राणियों को चाबुक आदि से. मारना या हिंसाकारी व्यापारों को करने का चिन्तन करना, मृषानुबन्धी यानी झूठ बोलने का विचार करना और झूठ बोल कर दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति करने का विचार करना, स्तेनानुबन्धी यानी 'चोरी करना एवं दूसरों के द्रव्य को चुराने का चिन्तन करना, संरक्षणानुबन्धी यानी अपने धन की रक्षा के लिए दूसरों की घात विचारना । २६२ 00 - : रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं यथा - ओसन्नदोष अर्थात् हिंसादि पापों में से किसी एक में बहुलतापूर्वक प्रवृत्ति करना, बहुलदोष यानी हिंसा आदि सभी दोषों में प्रवृत्ति करना अज्ञान दोष यानी अज्ञानता के कारण हिंसा आदि दोषों में धर्मबुद्धि से प्रवृत्ति करना । आमरणान्तदोष यानी मरणपर्यन्त हिंसादि क्रूर कार्यों का पश्चात्ताप न करना एवं हिंसा आदि पापों में प्रवृत्ति करते रहना आमरणान्त दोष है। जैसे कालसौकरिक कसाई । चतुष्पदावतार अर्थात् स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा इन चार बातों से जिसका विचार किया गया है ऐसा धर्मध्यान चार प्रकार का कहा गया है यथा- आज्ञाविजय अथवा आज्ञाविचय यानी 'जिन भगवान् की फरमाई हुई आज्ञा और तत्त्व सत्य हैं' ऐसा चिन्तन करना । अपायविजय अथवा अपायविचय यानी राग द्वेष से जीवों को इहलौकिक और पारलौकिक दुःखों की प्राप्ति होती है ऐसा विचार करना । विपाकविजय या विपाकविचय अर्थात् 'शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल होते हैं। अपने किये हुए कर्मों से ही आत्मा सुख दुःख भोगता है, ऐसा विचार करना। संस्थानविजय या संस्थानविचय अर्थात् लोक के संस्थान का तथा लोक में रहे हुए धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के स्वरूप का चिन्तन करना। धर्मध्यान के चार लक्षण-लिङ्ग कहे गये हैं यथा - आज्ञारुचि अर्थात् सूत्र में प्रतिपादित • श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के विषय शब्द और रूप काम कहलाते हैं । घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषय गन्ध, रस और स्पर्श भोग कहलाते हैं । दो इन्द्रियाँ कामी और तीन इन्द्रियाँ भोगी है । दूसरी जगह आर्त्तध्यान का चौथा भेद निदान- (नियाणा) बतलाया है । यथा देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के रूप, लावण्य और ऋद्धि आदि को देख कर या सुन कर उनमें आसक्त होना और यह सोचना कि मैंने जो तप संयम आदि धर्म कार्य किये हैं उनके फलस्वरूप मुझे भी उक्त ऋद्धि आदि प्राप्त हो इस प्रकार नियाणा करना । Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy