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________________ २५२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 उन्नत आम्र आदि, कोई द्रव्य से उन्नत किन्तु रस से हीन जैसे नीम आदि, कोई द्रव्य से हीन किन्तु रस से उन्नत द्राक्षा आदि, कोई द्रव्य से हीन और रस से भी हीन जैसे आक, थूहर आदि। इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। यथा - कोई पुरुष जाति आदि से उन्नत और दीक्षा लेकर ज्ञानादि सम्पन्न बने सो राजा आदि। वृक्ष की तरह पुरुष की भी चौभङ्गी कह देनी चाहिए। यथा - जाति आदि उन्नत किन्तु भाव से हीन नीच कर्म करने वाला राजा आदि । जाति आदि से हीन किन्तु भाव से उत्तम हरिकेशी मुनि आदि। जाति आदि से भी हीन और भाव से भी हीन म्लेच्छ अनार्य पुरुष आदि। रूप की अपेक्षा चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं। यथा - कोई द्रव्य से उन्नत और रूप से भी उन्नत आम्र आदि। कोई द्रव्य से उन्नत किन्तु रूप से हीन ताड़ आदि। कोई द्रव्य से हीन किन्तु रूप से उन्नत गुलाब आदि कोई द्रव्य से हीन और रूप से भी हीन केर आदि। इस तरह चौभङ्गी होती है। इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। कोई जाति आदि से उन्नत और मन से भी उन्नत, कोई जाति आदि से उन्नत किन्तु मन से हीन, कोई जाति आदि से हीन किन्तु मन से उन्नत और कोई जाति से भी हीन और मन से भी हीन। इसी प्रकार संकल्प, प्रज्ञा, दृष्टि, शीलाचार व्यवहार, पराक्रम। मन से लेकर पराक्रम तक सात बातों की चौभङ्गी। एक पुरुष की अपेक्षा ही कहनी चाहिए । इसके दृष्टान्त वृक्ष में ये सात बातें घटित नहीं होती हैं क्योंकि मन, प्रज्ञा आदि पुरुष में ही पाये जाते हैं, वृक्ष में नहीं पाये जाते हैं। चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं। यथा - कोई द्रव्य से सरल और भाव से भी सरल, उचित फल देने वाला, कोई द्रव्य से सरल किन्तु भाव से वक्र, विपरीत फल देने वाला। कोई द्रव्य से वक्र किन्तु भाव से सरल और कोई द्रव्य से भी वक्र और भाव से भी वक्र । पहले सरल और पीछे भी सरल, इस प्रकार काल से भी चार भंग हो सकते हैं। यह वृक्ष की अपेक्षा चौभङ्गी है। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। यथा - कोई पुरुष बाहर से यानी शरीर और गति आदि से सरल और माया रहित होने से भीतर भी सरल। कोई बाहर से सरल किन्तु भीतर से वक्र । कोई बाहर से वक्र किन्तु भीतर से सरल और कोई बाहर से भी वक्र और भीतर से वक्र। जैसे उन्नत प्रणत यानी ऊँच और हीन का अभिलापक कहा गया है। वैसे ही ऋजुवक्र यानी सरल और वक्र का भी पराक्रम तक अभिलापक कह देना चाहिए। ऋजु, ऋजुपरिणत, ऋजुरूप ये तीन वृक्ष की अपेक्षा और तीन ही पुरुष की अपेक्षा, इस तरह छह चौभङ्गी दृष्टान्त और दालन्तिक रूप से कह देनी चाहिए और मन, संकल्प, प्रज्ञा, दृष्टि, शीलाचार, व्यवहार और पराक्रम इन सात की अपेक्षा सात चौभङ्गी केवल पुरुष में ही कहनी चाहिए क्योंकि मन आदि पुरुष में ही पाये जाते हैं, वृक्ष में नहीं पाये जाते हैं। इसलिए इन सात की अपेक्षा वृक्ष का दृष्टान्त नहीं कहना चाहिए। _ भिक्षु-भाषा, वस्त्र और मनुष्य पडिमा पडिवण्णस्स णं अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए तंजहा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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