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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ भली प्रकार चिन्तन किया गया ज्ञान और सुतप यानी इहलोकादि की आशंसा रहित भली प्रकार किया गया तप। जंब शास्त्रों का भली प्रकार अध्ययन किया जाता है तब सुध्यान होता है अर्थात् उनका भली प्रकार चिन्तन किया जाता हैं और जब भली प्रकोर चिन्तन किया जाता है तब सुतप होता है । सुअधीत सुध्यात और सुतप यह तीन प्रकार का धर्म भगवान् ने अच्छा फरमाया है क्योंकि यह सम्यग् ज्ञान क्रिया रूप होने से मोक्ष का देने वाला है। विवेचन - गारव (गौरव) - गुरु अर्थात् भारीपन का भाव अथवा कार्य गौरव कहलाता है। द्रव्य और भाव भेद से गौरव दो प्रकार का है। वज्रादि की गुरुता द्रव्य गौरव है। अभिमान एवं लोभ से होने वाला आत्मा का अशुभ भाव भाव गौरव ( भाव गारव) है। यह संसार चक्र में परिभ्रमण कराने वाले कर्मों का कारण है। गारव (गौरव) के तीन भेद हैं - १. ऋद्धि गौरव २. रस गौरव और ३. साता गौरव | १. ऋद्धि गौरव - राजा महाराजाओं से पूज्य आचार्यता आदि की ॠद्धि का अभिमान करना एवं उनकी प्राप्ति की इच्छा करना ऋद्धि गौरव है। २. रस गौरव - रसना इन्द्रिय के विषय मधुर आदि रसों की प्राप्ति से अभिमान करना या उनकी इच्छा करना रस गौरव है। २३५ ००० ३. साता गौरव - साता - स्वस्थता आदि शारीरिक सुखों की प्राप्ति होने से अभिमान करना या उनकी इच्छा करना साता गौरव है। तिविहा वावती पण्णा तंजहा - जाणू अजाणू विइगिच्छा एवं अज्झोववज्जणा परियावज्जणा । तिविहे अंते पण्णत्ते तंजहा - लोयंते वेयंते समयंते । तओ जिणापण्णत्ता तंजहा - ओहिणाण जिणे, मणपज्जवणाण जिणे, केवलणाण जिणे । तओ केवली पण्णत्ता तंजहा - ओहिणाण केवली, मणपज्जवणाण केवली, केवलणाण केवली । तओ अरहा पण्णत्ता तंजहा ओहिणाण अरहा, मणपज्जवणाण अरहा, केवलणाण अरहा ॥ ११९॥ कठिन शब्दार्थ - वावत्ती - व्यावृत्ति विरति, अज्झोववज्जणा आसक्ति, परियावज्जणा - पर्यापदन- इन्द्रिय विषयों का सेवन, लोयंते का अन्त, समयंते - समयांत जैन सिद्धान्तों का अंत । भावार्थ - तीन प्रकार की व्यावृत्ति यानी हिंसा पापों से निवृत्ति कही गई है यथा - हिंसा आदि के स्वरूप को जान कर ज्ञान पूर्वक हिंसा आदि से निवृत्त होना, हिंसादि के स्वरूप को जाने बिना ही अज्ञान पूर्वक हिंसादि से निवृत्त होना और हिंसा आदि में पाप है या नहीं है इस प्रकार शंका पूर्वक Jain Education International - For Personal & Private Use Only अध्युपपादन- इन्द्रिय विषयों में लोकान्त, वेयंते - वेदान्त - वेदों www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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