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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ २३३ चक्षु के संख्या के भेद से तीन प्रकार कहे हैं - जिसके एक आंख है वह एक चक्षु इसी प्रकार द्वि चक्षु और त्रिचक्षु भी समझना। एक चक्षु चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा है। देव, चक्षुरिन्द्रिय और अवधिज्ञान से युक्त होने के कारण द्विचक्षु वाले हैं। आवरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ है श्रुत और अवधिरूप ज्ञान, ऐसे ज्ञान और अवधिदर्शन को जो धारण करते हैं वे उत्पन्न ज्ञान दर्शन धर कहलाते हैं ऐसे जो मुनि हैं वे त्रिचक्षु वाले अर्थात् १. चक्षुरिन्द्रिय २. परमश्रुत और ३. परमावधिज्ञान से युक्त हैं। तिविहा इड्डी पण्णत्ता तंजहा - देविड्डी, राइड्डी, गणिड्डी। देविड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा - विमाणिड्डी, विगुव्वणिड्डी, परियारणिड्डी, अहवा देविड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा - सचित्ता, अचित्ता, मीसिया। राइड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा - रणो अइयाणिड्डी, रण्णो णिज्जाणिड्डी, रण्णो बलवाहणकोस कोठागारिडी, अहवा राइड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा - सचित्ता, अचित्ता, मीसिया। गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा - णाणिड्डी, दंसणिड्डी, चरित्तिड्डी। अहवा गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा सचित्ता, अचित्ता, मीसिया॥११७॥ : कठिन शब्दार्थ - इड्डी - ऋद्धि, देविड्डी - देव ऋद्धि, राइड्डी- राजऋद्धि, गणिड्डी - गण ऋद्धि, विमाणिड्डी - विमानों की ऋद्धि, विगुव्वणिड्डी - वैक्रिय करने की ऋद्धि, परियारणिड्डी - परिचारण ऋद्धि, अइयाणिड्डी - अतियान ऋद्धि, णिजाणिड्डी - निर्यान ऋद्धि, बल-वाहणकोस कोठागारिड्डीचतुरंगिनी सेना, रथ पालखी, खजाना, कोष्ठागार-धान्य घर आदि की ऋद्धि। भावार्थ - तीन प्रकार की ऋद्धि कही गई है यथा - देव ऋद्धि, राज ऋद्धि और गण ऋद्धि । देव ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है यथा - विमानों की ऋद्धि, वैक्रिय करने की ऋद्धि और परिचारण ऋद्धि यानी देवियों के साथ भोग भोगने की ऋद्धि। अथवा देव ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है यथा - सचित्त यानी अपना शरीर, अग्रमहिषी आदि सचित्त पदार्थों की ऋद्धि, अचित्त यानी वस्त्र आभूषण आदि की अचित्त ऋद्धि और मिश्र यानी वस्त्राभूषणों से अलंकृ देवी आदि की ऋद्धि। राज ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है यथा - राजा की अतियान ऋद्धि यानी जब राजा नगर में प्रवेश करे तब दूकानों को और बाजार आदि को सजाने की ऋद्धि, राजा की निर्यान ऋद्धि यानी जब राजा नगर से बाहर निकले तब हाथी, घोड़े, सामन्त आदि की ऋद्धि और राजा की चतुरंगिनी सेना, रथ पालखी, खजाना, कोष्ठागार-धान्य घर आदि की ऋद्धि । अथवा राजऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है यथा - सचित्त, अचित्त और मिश्र। गण ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है यथा - विशिष्ट श्रुतादि रूप ज्ञान ऋद्धि, प्रवचन में शङ्का आदि दोष रहित होना एवं प्रवचन की प्रभावना करने वाला विशिष्ट शास्त्र का अभ्यास होना सो दर्शन ऋद्धि और अतिचार रहित चारित्र का पालन करना सो चारित्र ऋद्धि। अथवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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