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________________ २०२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 खाने के लिए लिया है उसमें से लेना, जो आहार अपने स्थान से इधर उधर न चलते हुए दाता अपने बर्तन में से आहार दे उसे लेना और जो आहार पकने के बर्तन में से निकाल कर ठंडा करने के लिए थाली आदि चौडे बर्तन में डाला गया हो और उसमें से वापिस उसी बर्तन में डाला जाता हो उस आहार में से लेना। ऊनोदरी तप तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - उपकरण ऊनोदरी अर्थात मर्यादा से कम वस्त्र पात्र रखना। भक्तपान ऊनोदरी अर्थात् शास्त्र में जो आहार का परिमाण बतलाया है उससे कम आहार करना। भावोनोदरता यानी क्रोध आदि कषायों को घटाना भाव ऊनोदरी है। उपकरण ऊनोदरी के तीन भेद कहे गये हैं। यथा - एक वस्त्र, एक पात्र और संयम के उपकारक रजोहरण आदि उपकरण रखना। कूजनता यानी आर्तस्वर से रुदन करना, कर्ककरणता यानी शय्या उपधि आदि के दोष बताना अर्थात् यह खराब है, अमुक खराब है इत्यादि वचन बोलना और अपध्यानता यानी आर्तध्यान रौद्रध्यान करना ये तीन बातें साधु और साध्वियों के लिये अहित अशुभ एवं असुख अक्षमा अर्थात् अयुक्त अनिःश्रेयस अर्थात् अकल्याण और अशुभानुबन्ध के लिए होती है। अकूजनता यानी आर्तस्वर से रुदन न करना अकर्ककरणता यानी यह खराब है अमुक खराब है, . इत्यादि वचन न बोलना और अनपध्यानता यानी आर्तध्यान रौद्रध्यान न करना ये तीन बातें साधु . साध्वियों के लिए हित सुख एवं शुभ क्षमा निःश्रेयस यानी कल्याण और शुभानुबन्ध के लिए होती हैं। तीन शल्य कहे गये हैं। यथा - माया शल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शन शल्य। आतापना लेने से, क्रोध का निग्रह कर क्षमा करने से और पानी रहित यानी चौविहार बेले बेले की तपस्या करने से इन तीन बातों से श्रमण निर्ग्रन्थ को संक्षिप्त की हुई तेजोलेश्या की प्राप्ति होती है। तीन मास की तीसरी भिक्षुपडिमा को धारण करने वाले साधु को भोजन की तीन दत्तियाँ और पानी की तीन दत्तियाँ लेना कल्पती हैं। एक रात्रिकी भिक्षुपडिमा का सम्यक् रूप से पालन न करने वाले साधु के लिए ये आगे कहे जाने वाले तीन स्थान अहित अशुभ एवं असुख अक्षमा अनिःश्रेयस यानी अकल्याण और अशुभानुबन्ध के लिए हो जाते हैं। यथा - उन्माद को प्राप्त होवे यानी चित्तविभ्रम होवे अथवा लम्बे समय तक रहने वाले कुष्ठ आदि रोग उत्पन्न हो जाय अथवा केवलि प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाय। एकरात्रिकी भिक्षुपडिमा को सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधु के लिए तीन स्थान हित शुभ एवं सुख क्षमा निःश्रेयस और शुभानुबन्ध के लिए होते हैं। यथा - उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाय अथवा मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न हो जाय अथवा केवलज्ञान उत्पन्न हो जाय। . __विवेचन - 'चतुर्थ भक्त' शब्द का कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि उपवास के पहले दिन एक भक्त और पारणे के दिन एक भक्त और उपवास के दिन दो भक्त, इस प्रकार चार भक्तों का (चार वक्त भोजन का अर्थात् चार टंक का) त्याग करना चतुर्थ भक्त कहलाता है। किन्तु यह अर्थ आगम सम्मत नहीं हैं। क्योंकि गुणरत्न संवत्सर तप और कालीआदिक दस रानियों के तप में चतुर्थ भक्त शब्द की इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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