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________________ १९६ . श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 शक्ति मुझे इस भव में प्राप्त हुई है। इसलिए मैं मनुष्य लोक में जाऊं और उन पूज्य आचार्य भगवन्त आदि को वन्दना नमस्कार करूँ, सत्कार सन्मान दूं एवं कल्याण तथा मंगल रूप यावत् उनकी उपासना करूं। २. नवीन उत्पन्न देवता यह सोचता है कि सिंह की गुफा में कायोत्सर्ग करना दुष्कर कार्य है किन्तु पूर्व उपभुक्त, अनुरक्त तथा प्रार्थना करने वाली वेश्या के घर में रह कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना उससे भी अति दुष्कर कार्य है। स्थूलभद्र मुनि की तरह ऐसी कठिन से कठिन क्रिया करने वाले ज्ञानी, तपस्वी मनुष्य लोक में दिखाई पड़ते हैं। इसलिये मैं मनुष्य लोक में जाऊँ और उन पूज्य मुनीश्वरों को वन्दना नमस्कार करूं यावत् उनकी उपासना करूं। ३. वह देवता यह सोचता है कि मनुष्य भव में मेरे माता पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्रवधू आदि हैं। मैं वहां जाऊँ और उनके सम्मुख प्रकट होऊँ । वे मेरी इस दिव्य देव संबंधी ऋद्धि, द्युति और शक्ति को देखें। तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा तंजहा - माणुस्सं भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुलपच्चायाई। तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा तंजहा - अहो णं मए संते बले, संते वीरिए, संते पुरिसक्कारपरक्कमे, खेमंसि, सुभिक्खंसि, आयरियउवज्झाएहिं विजमाणेहिं कल्लसरीरेणं णो बहुए सुए अहीए, अहो णं मए इहलोगपडिबद्धेणं परलोगपरंमुहेणं विसयतिसिएणं णो दीहे सामण्ण परियाए अणुपालिए, णो विसुद्दे चरित्ते फासिए। अहो णं मए इड्डिरस सायगुरुएणं भोगामिस गिद्धेणं इच्चएहिं तिहिं ठाणेहिं देव परितप्पेजा। तिहिं ठाणेहिं देवे चइस्सामि त्ति जाणाइ तंजहा - विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता, कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्ता, अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणिं जाणित्ता। इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं देव चइस्सामित्ति जाणाइ। तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेग मागच्छेज्जा तंजहा - अहो णं मए इमाओ एयारूवाओ दिव्वाओ देविडिओ दिव्याओ देवजुईओ दिव्याओ देवाणुभावाओ पत्ताओ लद्भाओ अभिसमण्णागयाओ चइयव्वं भविस्सइ। अहो णं मए माउओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसिटुं तप्पढमयाए आहारो आहारेयव्यो भविस्सइ।अहोणं मए कलमलजंबालाए असुईए उव्वेयणियाए भीमाए गब्भवसहीए वसियव्वं भविस्सइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा। तिसंठिया विमाणा पण्णत्ता तंजहा - वट्टा तंसा चउरंसा। तत्थ णं जे ते वट्टा विमाणा ते णं पुक्खरकण्णिया संठाण संठिया सव्वओ समंता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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