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________________ १८८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - तीसरे स्थानक के दूसरे उद्देशक के अंतिम सूत्र में मिथ्या दर्शन वालों की असमंजसताअज्ञानता बतायी है तो इस तीसरे उद्देशक के प्रथम सूत्र में कषाय वालों-मायी व्यक्ति की असमंजसता प्रकट करते हैं। इस तरह इस सूत्र का पूर्व सूत्र के साथ संबंध है। उपरोक्त सूत्र में आये विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार समझना आलोचनं - गुरु को निवेदन करना, प्रतिक्रमणं - मिथ्या दुष्कृत देना, निंदा - आत्म साक्षी से , निन्दा करना, गहां - गुरु की साक्षी से गर्दा करना, वित्रोटनं - पाप का विचार दूर करना, विशोधनं - आत्मा के अथवा चारित्र के अतिचार रूप मल को धोना-शुद्ध करना । अकरणताभ्युत्थानं - पुनः यह पाप नहीं करूंगा, ऐसा स्वीकार करना । पायच्छित्तं - प्रायश्चित्त-पाप का छेदन करने वाला अथवा प्रायः चित्त को विशुद्ध करने वाला। ___किसी एक दिशा में फैलने वाली प्रसिद्धि (ख्याति) को कीर्ति कहते हैं और चारों तरफ सर्वदिशाओं में फैलने वाली प्रसिद्धि को यश कहते हैं। वर्ण यश का पर्यायवाचक शब्द है। अथवा दान और पुण्य के फल रूप कीर्ति होती है और पराक्रम से यश होता है दोनों का निषेध अकीर्ति और अवर्ण (अयश) कहलाता है। तओ पुरिस जाया पण्णत्ता तंजहा - सुत्तधरे अत्यधरे तदुभयधरे। कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तओ वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा तंजहा - जंगिए भंगिए खोमिए। कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तओ पायाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा तंजहा - लाउयपाए वा दारुपाए वा मट्टियापाए वा। तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेग्जा तंजहा -हिरिवत्तियं दुगुच्छावत्तियं परिसहवत्तियं। तओ आयरक्खा पण्णत्ता तंजहाधम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइत्ता भवइ, तुसिणीओ वा सिया, उद्वित्ता वा आयाए एगंतमंतमवक्कमेग्जा। णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पंति तओ वियडदत्तीओ पडिग्गाहित्तए तंजहा - उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा॥८७॥ कठिन शब्दार्थ - धारित्तए - धारण करना, परिहरित्तए - पहनना, कप्पइ - कल्पता है, जंगिएजांगिक-ऊन के बने हुए, भंगिए - भाङ्गिक-अलसी सण आदि के बने हुए, खोमिए - क्षोमिक-कपास के बने हुए, पायाइ - पात्र, लाउयपाए - तुम्बी का पात्र, दारुपाए - लकड़ी का पात्र, मट्टियापाए - मिट्टी का पात्र, धरेजा - धारण करते हैं, हिरिवत्तियं - लज्जा और संयम की रक्षा के लिए, दुगुच्छावत्तियं-. प्रवचन की निन्दा से बचने के लिए, परिसहवत्तियं - परीषह सहन करने के लिए, आयरक्खा - आत्मरक्षक, पडिचोयणाए - प्रेरणा से उपदेश से, तुसिणीओ - मौन, अवक्कमेजा - चला जाय, गिलायमाणस्स - ग्लानि को प्राप्त होते हुए, वियडदत्तीओ - अचित्त जल की दत्तियाँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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