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________________ श्री स्थानांग सूत्र ********00 कोई दुर्मन वाला होता है और कोई मध्यस्थ रहता है। मैं शब्द सुनूँगा ऐसा विचार कर कोई सुमन वाला होता है, कोई दुर्मन वाला होता है और कोई मध्यस्थ रहता है। इसी प्रकार न सुन करके, नहीं सुनता हूँ ऐसा विचार करके और न सुनूँगा ऐसा विचार करके कोई सुमन वाला होता है, कोई दुर्मन वाला होता है और कोई मध्यस्थ रहता है। इसी प्रकार रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन प्रत्येक में छह छह आलापक कह देने चाहिए । कुल १२७ आलापक होते हैं। शीलरहित, व्रतरहित यानी प्राणातिपात आदि से अनिवृत्त, निर्गुण यानी उत्तरगुणों से रहित, मर्यादा से रहित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित पुरुष के लिए तीन स्थान गर्हित होते हैं यथा यह लोक यानी जन्म गर्हित यानी निन्दित होता है, गर्हित स्थान में यानी नरक में अथवा किल्विषी देवादि में उपपात - जन्म होता और आजाति यानी वहां से चलने के बाद मनुष्यों में नीचकुल में और तिर्यञ्चों में जन्म गर्हित होता है। शीलसहित, व्रत सहित, उत्तरगुण संहित, मर्यादा सहित और प्रत्याख्यान पौषधोपवास सहित पुरुष के लिए तीन स्थान प्रशस्त होते हैं यथा- यह लोक यानी जन्म प्रशस्त होता है, उपपात प्रशस्त होता है अर्थात् उत्तम देवलोकों में जन्म होता है और वहाँ से चवने के बाद उत्तम मनुष्य कुल में जन्म होता है। १८० तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता तंजहा - इत्थी पुरिसा णपुंसगा । तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी य, -अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा - पज्जत्तगा अपज्जत्तगा णोपजत्तगा अपजत्तगा । एवं सम्मदिट्ठी, परित्ता पज्जत्तग, सुहुम, सपिण, भविया य ॥ ८१ ॥ कठिन शब्दार्थ- संसारसमावण्णमा संसार समापन्नक संसारी, सव्वजीवा - सब जीव, णोपज्जत्तगा जो अपजसगा- नो पर्याप्तक नो अपर्याप्तक । भावार्थ- संसारी जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा स्त्री, पुरुष और नपुंसक। सब जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा समदृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सममिथ्यादृष्टि यानी मिश्रदृष्टि । अथवा सब जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा- पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक अर्थात् सिद्ध भगवान्। इस प्रकार समदृष्टि, परित्त यानी प्रत्येक शरीरी, पर्याप्तक, सूक्ष्म, संज्ञी और भव्य । इन छह की अपेक्षा सब जीवों के तीन तीन भेद कहने चाहिए। इन सब में तीसरे भेद में सिद्ध जीव कहने चाहिए। Jain Education International - - 1 विवेचन वेदमोहनीय के उदय से जीवों में तीन प्रकार की कामनायें उत्पन्न होती है। स्त्री वेद के उदय से स्त्री, पुरुष वेद के उदय से पुरुष और नपुंसक वेद के उदय से जीव नपुंसक बनता है। यहाँ परित्त शब्द का अर्थ प्रत्येक शरीर किया है जबकि प्रज्ञापना सूत्र की टीका में परित्त शब्द का अर्थ परित् संसारी किया है। इस तरह परित्त के दो अर्थ होते हैं। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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