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________________ १६८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 बायर तेउकाइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाइं ठिई पण्णत्ता। बायर वाउ काइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। अह भंते ! सालीणं वीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एएसिणं धण्णाणं कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुहियाणं पिहियाणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि संवच्छराइं, तेण परं जोणी पमिलाइ, तेण परं जोणी पविद्धंसेइ, तेण परं जोणी विद्धंसइ, तेण परं बीए अबीए भवइ, तेण परं जोणी वोच्छेओ पण्णत्तो। दोच्चाए णं सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता॥ ७२॥ कठिन शब्दार्थ - बायरतेउकाइयाणं - बादर तेउकायिक जीवों की, राइंदियाइं- रात दिन की, वाससहस्साई - हजार वर्ष की, सालीणं - शालि, वीहीणं - ब्रीहि, गोधूमाणं - गेहूँ, जवाणं - जौ, जवजवाणं - विशिष्ट प्रकार के जौ अथवा ज्वार, धण्णाणं - धान्यों को, कोट्ठाउत्ताणं - कोठे में रखे हुए, पल्लाउत्ताणं - पल्य में रखे हुए, मंचाउत्ताणं - मचान पर रखे हुए, मालाउत्ताणं - माले में रखे हुए, ओलित्ताणं - लीपे.हुए, लांछियाणं - लांछन अर्थात चिह्न लगाये हुए, मुहियाणं - मिट्टी का छांदण लगाये हुए, पिहियाणं - ढंके हुए, संचिट्ठइ - सचित्त रहती है। भावार्थ - बादर तेउकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन रातदिन की कही गई है। बादर . वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की कही गई है। अहो भगवन् ! शालि, ब्रीहि, गेहूँ, जौ विशिष्ट प्रकार के जौ अथवा ज्वार, इन धान्यों को कोठे में रख कर, पल्य में यानी बांस की बनी हुई छाबड़ी में रख कर, मचान पर रख कर, माले में यानी घर के ऊपरी भाग मेंमेड़ी में रख कर, लीप दिया जाय, चारों तरफ से लीप दिया जाय, लीप कर उन पर रेखा आदि खींच कर निशान लगा दिया जाय, मिट्टी का छांदण लगा दिया जाय और खूब अच्छी तरह ढंक दिया जाय तो उनकी योनि कितने काल तक सचित्त रहती है अर्थात् कितने काल तक उगने की शक्ति रहती है ? ___ भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन वर्ष तक उनकी योनि सचित्त रहती है। इसके पश्चात् उनकी योनि अर्थात् अङ्कर उत्पन्न होने की शक्ति म्लान यानी वर्णादि से हीन हो जाती है, नष्ट हो जाती है, विध्वंस हो जाती है, बीज अबीज अर्थात् अङ्कर उत्पन्न करने की शक्ति रहित हो जाता है अर्थात् जमीन में बोने पर भी अङ्कर उत्पन्न नहीं होता है, इसके बाद उनकी योनि का विच्छेद - विनाश हो जाता है ऐसा कहा गया है। दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी यानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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