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________________ १३४ श्री स्थानांग सूत्र आराधना और चारित्रधर्म की आराधना। केवलिआराधना दो प्रकार की कही गई है यथा - अन्तक्रिया यानी केवलज्ञानी इस भव का अन्त करके मोक्ष में जाते समय शैलेशी रूप क्रिया करते हैं सो अन्तक्रिया आराधना और कल्पविमानोपपातिका अर्थात् जिससे श्रुतकेवली आदि सौधर्मादि देवलोकों में तथा नवौवेयक और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं वह कल्पविमानोपपातिका आराधना . कहलाती है। इस अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों में से श्री मुनिसुव्रत स्वामी और श्री अरिष्टनेमिनाथ भगवान् ये दो तीर्थङ्कर वर्ण की अपेक्षा नीलकमल के समान नीले वर्ण के कहे गये हैं। मल्लिनाथ भगवान् और पार्श्वनाथ भगवान् ये दो तीर्थंकर वर्ण से प्रियंगु वृक्ष के समान हरे वर्ण के कहे गये हैं। पद्मप्रभस्वामी और वासुपूज्य स्वामी ये दो तीर्थंकर वर्ण से रक्त कमल के समान लाल वर्ण वाले कहे गये हैं। चन्द्रप्रभ स्वामी और पुष्पदन्त-सुविधिनाथ स्वामी ये दो तीर्थंकर वर्ण से चन्द्रमा के समान सफेद गौर वर्ण वाले कहे गये हैं। शेष १६ तीर्थंकरों का वर्ण सोने के समान पीला गौर था। . - विवेचन - मूर्छा यानी मोह-सत् असत् के विवेक का नाश। मूर्छा दो प्रकार की कही गई है। मूर्छा से उत्पन्न कर्म का क्षय आराधना से होता है अतः आराधना के तीन सूत्र दिये हैं। ___ अन्तक्रिया - कर्म अथवा कर्म कारणक भव का अन्त करना अन्तक्रिया है। द्विस्थान होने से . यहाँ अन्तक्रिया के दो भेद कहे गये हैं। यों तो अन्तक्रिया एक ही स्वरूप वाली होती है किन्तु सामग्री के भेद से अन्तक्रिया चार प्रकार की कही गई है जिनका वर्णन चौथे स्थान में किया जायेगा। - सच्चप्पवाय पुव्वस्स णं दुवे वत्थू पण्णत्ता। पुव्वाभहवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते। उत्तरभद्दवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते। एवं पुव्वफग्गुणी उत्तराफग्गुणी। अंतो णं मणुस्सखेत्तस्स दो समुद्दा पण्णत्ता तंजहा - लवणे चेव कालोदे चेव। दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए अप्पइट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववण्णा तंजहा - सुभूमे चेव बंभदत्ते चेव॥५३॥ कठिन शब्दार्थ - सच्चप्पवाय - सत्य प्रवाद, पुव्वस्स - पूर्व की, दुवे - दो, वत्यू - वस्तुअध्ययन-विशेष, दुतारे - दो तारों वाला, अंतो - अन्दर, लवणे - लवण समुद्र, कालोदे - कालोदधि समुद्र, चक्कवट्टी - चक्रवर्ती, अपरिचत्त कामभोगा - कामभोगों का त्याग न करने वाले, कालमासे - यथा समय, कालं किच्चा - आयुष्य पूर्ण करके, अप्पइट्ठाणे'- अप्रतिष्ठान नामक, उववण्णा - उत्पन्न हुए हैं। ___ भावार्थ - सत्यप्रवादपूर्व की दो वस्तु यानी अध्ययन कहे गये हैं। पूर्व भाद्रपद नक्षत्र दो तारों वाला कहा गया है। उत्तर भाद्रपद नक्षत्र दो तारा वाला कहा गया है। इसी प्रकार पूर्वाफाल्गुनी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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