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________________ ७० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध otos................................................ वाले घोंसलों से छानकर, मसलकर उसमें रहे हुए गुठली बीजादि छिलके आदि को अलग करके लाकर उसे दे तो साधु या साध्वी ऐसे धोवन को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बीस प्रकार का धोवन और एक गरम पानी इस प्रकार इक्कीस प्रकार के प्रासुक धोवन पानी का उल्लेख किया गया है। सूत्रकार का तात्पर्य यह है कि आम्र आदि फलों का धोया हुआ पानी यदि गुठली बीज आदि से युक्त है और गृहस्थ छलनी या वस्त्र आदि से एक बार या अधिक बार छान कर तथा उसमें से गुठली बीज आदि निकाल कर दे तो वह पानी साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि इस तरह का पानी उद्गम आदि दोषों से युक्त होता है अतः अनेषणीय होने के कारण ऐसा पानी साधु ग्रहण नहीं करे। प्रस्तुत सूत्र में आगमकार साधुओं को नहीं कल्पने योग्य वस्तुओं की निषेधविधि बताते हैं। उसमें सर्वप्रथम अकल्पनीय जलों के नामोल्लेख हैं। इस उद्देशक में वर्णित-आम्र, आम्रातक, द्राक्षा, कैर, बोर आदि सचित्त पदार्थ हैं। इनको धोने से यद्यपि पानी तो अचित्त बन जाता है किन्तु उसमें इन वनस्पतियों के बीज, बीट, छाल आदि रह जाने की संभावना रहती है। साधुओं के निमित्त उसे छाना जाए तो भी वह जल साधुओं के लिए अकल्पनीय हो जाता है और बिना छाने तो वनस्पतियों के अवयव पड़े हुए होने से वह जल अकल्पनीय ही माना जाता है। अतः आगम में इस जल को ग्रहण करने का निषेध ही किया है। अन्यत्र "अह पुण एवं जाणिजा" आदि वाक्यों के द्वारा ग्रहण की विधि भी बताई जाती है। वह भी यहाँ पर नहीं बताई गई है। क्योंकि ये जल अधिकतर निर्दोष मिलने कम ही संभव होते हैं। इस प्रकार आगम में तो सातवें उद्देशक में बताए हुए नव प्रकार के जलों को ग्रहण करने की विधि बतलाई गई है। __सुघरी (सुघरिका)-वया - एक प्रकार की चिड़िया जो अपना घोंसला जाली दार बनाती है, जब वह उसे छोड़ देती है, तब लोग उसे ले आते हैं। वह जालीदार होने के कारण लोग उसमें घी, पानी आदि छानते हैं। उसमें छना हुआ पानी बिलकुल साफ होता है। यहाँ जो बीस प्रकार का धोवन बतलाया गया है वह उन चीजों को धोया हुआ धोवन समझना चाहिए। जैसे कि आम फलों का धोया हुआ पानी, इसी प्रकार दाखों को धोया हुआ पानी, नारियल अर्थात् खोपरों को धोया हुआ पानी समझना चाहिए। किन्तु नारियल में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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