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________________ अध्ययन १ उद्देशक ६ ••••••••••••••••rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. कठिन शब्दार्थ - बिलं लोणं - खान से निकलने वाले नमक को, उब्भियं लोणं - खारे पानी से बनाये हुए नमक को, भिंदिसु - भेदन किया है (फोडा है) भिंदंति - भेदन करते हैं, भिंदिस्संति - भेदन करेंगे, रुचिंसु - पीसा है, रुचंति - पीसते हैं, रुचिस्संति - पीसेंगे। भावार्थ - साधु या साध्वी अगर ऐसा जाने कि-असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से खान से निकलने वाले नमक, खारे पानी से तैयार किये जाने वाले नमक या अन्य किसी प्रकार के नमक को सचित्त यावत् जीव जंतुओं से युक्त शिला पर फोड़ा है, फोडता है या फोडेगा, पीसा है, पीसता है या पीसेगा तो साधु ऐसे दिये जाने वाले पदार्थ को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे। • विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि आहार ग्रहण करते समय साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की किस प्रकार यतना करनी चाहिये? साधु किसी भी प्रकार का सचित्त नमक (लवण) ग्रहण नहीं करे। 'लवण' शब्द से यहाँ उपलक्षण से समस्त सचित्त पृथ्वीकाय का ग्रहण किया गया है। अत: संयमशील साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना हो, ऐसे पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिये। ___प्रस्तुत सूत्र में आये हुए दोनों प्रकार के नमक को अचित्त नमक समझना चाहिये। दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में इन दोनों प्रकार के नमक की सन्निधि करने का निषेध किया है, ग्रहण करने का नहीं। दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन की आठवीं गाथा में आये हुए नमक के प्रकारों को सचित्त नमक समझा जाता है। आचारांग सूत्र के इसी अध्ययन के दसवें उद्देशक में इन्हीं दो अचित्त नमक को भूल से ग्रहण हो जाने पर खाने आदि की विधि बताई है। यहाँ पर ये दोनों नमक अचित्त होने पर भी भेदन, पीसना आदि करके देने से अयतना होने के कारण ग्रहण करने का निषेध किया है। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अगणिणिक्खत्तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। केवली बूयाआयाणमेयं असंजए भिक्खुपडियाए उस्सिंचमाणे णिस्सिंचमाणे वा आमजमाणे वा पमज्जमाणे वा ओयारेमाणे वा उव्वत्तमाणे वा अगणिजीवे हिंसिज्जा अह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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