SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन १५ ३४७ 0000000000000000000000000000000000....................... होता है। आज्ञा ग्रहण किये बिना आहार पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं। यह दूसरी भावना है। इसके बाद तीसरी भावना यह है-साधु क्षेत्र और काल के परिमाण पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला होता है। केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ क्षेत्र और काल की मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना नहीं करता वह अदत्तादान का सेवन करने वाला होता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र और काल की मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला होता है अन्यथा नहीं। यह तीसरी भावना है। ___ तदनन्तर चौथी भावना यह है - निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के बाद बारबार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला हो। क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेता परन्तु बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान का सेवन करता है। अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः-पुनः अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करनी चाहिये। यह चौथी भावना है। .. तदनन्तर पांचवीं भावना इस प्रकार है - जो साधक साधर्मिकों से भी विचार पूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली भगवान् कहते हैं कि जो बिना विचारे साधर्मिकों से परिमित अवग्रह की याचना करता है वह अदत्तादान का सेवन करता है। अतः जो साधक साधर्मिकों से भी विचार पूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है वही निर्ग्रन्थ कहलाता है, बिना विचारे साधर्मिकों से मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। यह पांचवीं भावना हैं। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तीसरे महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन किया गया है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं - १. साध किसी भी आवश्यक एवं कल्पनीय वस्त को बिना आज्ञा ग्रहण न करे २. प्रत्येक वस्तु को ग्रहण करने के पूर्व गुरु की आज्ञा ले ३. क्षेत्र और काल की मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करे ४. बार-बार आज्ञा ग्रहण करे और ५. साधर्मिकों से भी विचार पूर्वक अवग्रह की याचना करे। . तीसरे महाव्रत की सुरक्षा के लिए ये पांच भावनाएँ आवश्यक हैं। एतावताव तच्चे महव्वए सम्मं जाव आणाए आराहए यावि भवइ, तच्चे भंते! महव्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy