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________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध समुपणे, तणं दिवसं भवणवइ वाणमंतर जोइसिय विमाणवासि देवेहिं च देवीहिं च उव्वयंतिहिं च जाव उप्पिंजलगब्भूए यावि होत्था । कठिन शब्दार्थ - णिव्वाणे - निर्वाण अर्थात् सर्वथा शांति । भावार्थ- जिस दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण अर्थात् सर्वथा शांति सम्पूर्ण यावत् अनुत्तर केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। उस दिन भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और विमानवासी (वैमानिक) देव देवियों के आने जाने से महान् दिव्य देवोद्योत हुआ, देवों का मेला लग गया, देवों का कलकलनाद होने लगा, वहाँ का सास आकाशमंडल हलचल से व्याप्त हो गया । विवेचन - भगवान् को केवलज्ञान होने पर देव देवियों ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए केवल महोत्सव मनाया। ओणं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णवरणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खड़ तओ पच्छा मणुस्साणं ॥ कठिन शब्दार्थ - उप्पण्णवरणाणदंसणधरे - उत्पन्न श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारक, अभिसमिक्ख- अभिसमीक्ष्य-जान कर, धम्मं - धर्म का, आइक्खड़ - उपदेश दिया । भावार्थ - तत्पश्चात् अनुत्तर केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने केवलज्ञान से अपनी आत्मा और लोक को सम्यक् प्रकार से जान कर पहले देवों को और तत्पश्चात् मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया । विवेचन - तीर्थंकर भगवन्तों को केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होते ही देवों के आसन चलित होते हैं । तब वे अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर देखते हैं कि तीर्थंकर भगवान् को केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ है। इसलिए इनके जीताचार के अनुसार केवलज्ञान केवलदर्शन का महोत्सव मनाने के लिए यहाँ तिरछा लोक में आते हैं और महोत्सव मनाते हैं । तब फिर तीर्थङ्कर भगवान् को केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होने का मनुष्यों को मालूम होता है। इस अपेक्षा यहाँ मूल पाठ में ऐसा बतला दिया गया है कि 'पहले देवों को उपदेश दिया और फिर मनुष्यों को उपदेश दिया।' इसका आशय यह है कि केवलज्ञान, केवलदर्शन महोत्सव मनाने के लिये सब से पहले देव आते हैं और मनुष्य पीछे आते हैं। इस आगमन के क्रम को सूचित करने के लिए यहाँ धर्मोपदेश का भी यही क्रम बतला दिया गया है। ३३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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