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________________ ३२० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ••••••••••••••••••••••soterest.estosteronormsterrorosote सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ करित्ता "सव्वं मे अकरणिजं पावं कम्म" त्ति कट्ट सामाइयं चरित्तं पडिवजइ, सामाइयं चरित्तं पडिवजित्ता देवपरिसं मणुयपरिसं च आलिक्खचित्तभूयमिव द्ववेइ॥ कठिन शब्दार्थ - पाईणगामिणीए - पूर्व गामिनी, एगसाडगं - एक शाटक-देव दूष्य वस्त्र को, सदेवमणुयासुराए - देव, मनुष्य और असुरकुमारों की, समणिजमाणे - निकलते हुए, इंसिं - थोड़ी सी, रयणिप्पमाणं - रत्नि (हाथ) प्रमाण बद्ध मुष्टि हस्त प्रमाण अर्थात् मुण्ड हाथ परिमाण, ओमुयइ - उतारते हैं, अच्छोप्पेणं - अस्पृष्ट-ऊंची रख कर, जण्णुव्वायपडिए - घुटने टेक कर चरणों में गिरना, हंसलक्खणेणं - हंस लक्षण-हंस चिह्न युक्त, पडिच्छइ - ग्रहण करता है, पंचमुट्ठियं - पंच मुष्टिक, आलिक्खचित्तभूयं -. आलिखित चित्रभूत। भावार्थ - उस काल और उस समय में जब हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्ण पक्ष था। उसकी दशमी तिथि के सुव्रत दिवस के विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर पूर्वगामिनी छाया होने पर द्वितीय प्रहर के बीतने पर निर्जल-बिना पानी के षष्ठ भक्त (दो, उपवास-बेले) के साथ एक मात्र देवदूष्य वस्त्र को लेकर भगवान् महावीर स्वामी चन्द्रप्रभा नाम की सहस्र वाहिनी शिविका में बैठे जो देवों, मनुष्यों और असुरों की परिषद् के साथ ले जाई जा रही थी। वे देव मनुष्य और असुरकुमारों की परिषद् के साथ क्षत्रियकुंडपुर सन्निवेश के बीचों बीच होते हुए जहाँ ज्ञात खण्ड उद्यान था वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुंच कर देव थोड़ी सी (मुंड) हाथ प्रमाण भूमि से ऊँची रख कर अर्थात् भूमि को स्पर्श न कराते हुए धीरे-धीरे उस चन्द्रप्रभा नाम की सहस्रवाहिनी शिविका को ठहरा (रख) देते हैं। भगवान् उसमें से शनैः शनैः नीचे उतरते हैं और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ जाते हैं तत्पश्चात् भगवान् अपने आभरणालंकारों को उतारते हैं तब वैश्रमण देव घुटने टेक कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में झुकता है और भक्तिपूर्वक उन आभरणालंकारों को हंस लक्षण सदृश श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है, उसके बाद भगवान् ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के और बाएँ हाथ से बांई ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच किया। तब देवराज देवेन्द्र शक्र श्रमण . भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष घुटने टेक कर चरणों में झुकता है और उन केशों को वन . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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