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________________ अध्ययन १५ ३०५ को, अणुपत्तेहिं - प्राप्त हो जाने पर, समत्तपइण्णे - समाप्त प्रतिज्ञ-अपनी की हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने पर, चिच्चा-छोड़ कर, त्याग करके, अभिणिक्खमणाभिप्याए - अभिनिष्क्रमणाभिप्राय-दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया। . भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, ज्ञातकुल से विनिर्वृत्त थे, देहासक्ति से रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय (पूजनीय) थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, विशिष्ट शरीर से युक्त होते हुए भी सुकुमाल थे। इस प्रकार भगवान् महावीर स्वामी तीस वर्ष तक विदेह रूप में अर्थात् शरीर की आसक्ति से रहित घर में निवास करके, मातापिता के आयुष्य पूर्ण कर देवलोक को प्राप्त हो जाने पर, अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से चांदी, सोना, सेना (बल), वाहन, धन, धान्य, रत्न आदि सारभूत पदार्थों का त्याग करके याचकों को यथेष्ट दान दे कर तथा अपने संबंधियों में यथायोग्य विभाग करके एक वर्ष पर्यन्त दान देकर हेमन्त ऋतु के प्रथम मास प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा दसमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान् ने अभिनिष्क्रमण (दीक्षा ग्रहण) करने का विचार किया। . विवेचन - मूल पाठ में "समत्तपइण्णे" शब्द दिया है जिसका अर्थ होता है प्रतिज्ञा पूरी हो जाने पर। तो यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न हो जाता है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या प्रतिज्ञा की थी और कब की थी? उत्तर - जब भगवान् का जीव महारानी त्रिशला के गर्भ में आया तब एक समय उस गर्भस्थ जीव ने ऐसा विचार किया कि "मेरे हलन-चलन से माता को कष्ट होता होगा" इसलिए हलन-चलन बन्द करके वह निश्चल हो गया। गर्भ के निश्चल हो जाने से माता चिन्तित हो गई। माता को सन्देह हुआ कि मेरा गर्भ निश्चल क्यों हो गया? क्या किसी ने हरण कर लिया? अथवा निर्जीव हो गया या गल गया? इस प्रकार के विचारों से माता उदास हो गई। उसका सन्देह व्यापक हो गया समस्त परिवार और दास-दासियों में उदासी छा गई। राग-रंग और मंगल बाजे बन्द कर दिये गये। तब गर्भस्थ जीव ने अपनी निश्चलता का परिणाम अवधिज्ञान से जाना उसे माता का खेद और सर्वत्र व्याप्त उदासीनता दिखाई दी। तब गर्भस्थ जीव ने विचार किया कि मैंने तो माता के सुख के लिए हलन-चलन बन्द किया था। परन्तु इससे माता को उल्टा दुःख हुआ अतः तत्काल हलन-चलन प्रारम्भ कर दिया। तब माता को गर्भ के सुरक्षित होने का विश्वास हो गया। मुख पर प्रसन्नता छा गई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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