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________________ विवचेन प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी की युवावस्था का वर्णन किया गया है। जब राजकुमार वर्धमान यौवन वय को प्राप्त हुए तब उनका उत्कृष्ट रूप और अलौकिक प्रभा देखने वालों का मन बर्बस अपनी तरफ खींच लेती । यौवन अवस्था में प्रायः संसारी जीवों का मन वासना से भरपूर रहता है परन्तु वर्धमान कुमार निर्विकार थे उनके मन में विषय वासना का निवास नहीं था। माता-पिता की इच्छा थी कि शीघ्र ही उनका पुत्र विवाहित हो जाय और उनके घर में कुलवधू आ जाय। कई राजाओं के मन में राजकुमार वर्धमान को अपना जामाता ( जंवाई) बनाने की इच्छा थी । इतने में ही समरवीर राजा के मंत्री गण अपनी राजकुमारी यशोदा का सम्बन्ध राजकुमार वर्धमान के साथ करने के लिये महाराजा सिद्धार्थ की सेवा में उपस्थित हुए। माता-पिता और मित्रों आदि के दबाव से वह सम्बन्ध स्वीकार हो गया और राजकुमारी यशोदा के साथ उनका विवाह हो गया और अलिप्त भावों से उदय कर्म को भोग कर क्षय करने लगे । यथा समय एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम 'प्रियदर्शना' रखा गया। इस प्रकार कुमार वर्धमान प्राप्त काम भोगों में आसक्त नहीं हुए और शीघ्र ही उनसे निवृत्त हो गये। - Jain Education International अध्ययन १५ समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते तस्स णं इमे तिणिण णामधेज्जा एवमाहिज्जति अम्मापिउसंतिए 'वद्धमाणे' सहसम्मुइए 'समणे' भीमभय भेरवं उरालं अचले परिसहं सहइ त्ति कट्टु देवेहिं से णामं कयं 'समणे भगवं महावीरे' ॥ कठिन शब्दार्थ - आहिज्जति कहे जाते हैं, अम्मापिउसंतिए - माता-पिता की ओर से दिया हुआ, सहसम्मुइए - स्वाभाविक सन्मति से, भीमं रौद्र, भयभेरवं - अत्यंत भय उत्पन्न करने वाला, उरालं- प्रधान, अचले - अचल । - - ३०१ .❖❖❖ भावार्थ - काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ये तीन नाम कहे जाते हैं१. माता-पिता के द्वारा दिया हुआ नाम 'वर्द्धमान' २. समभाव में स्वाभाविक सन्मति होने के कारण 'श्रमण' और ३. भयंकर भय भैरव उत्पन्न होने पर भी अविचल रह कर विभिन्न परीषहों को समभाव पूर्वक सहने के कारण देवों ने उनका नाम 'श्रमण भगवान् महावीर' रखा। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में भगवान् के तीन प्रचलित गुणनिष्पन्न नामों का उल्लेख किया गया है गर्भ में आते ही धन धान्य आदि में वृद्धि होने के कारण माता-पिता ने उनका नाम - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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