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________________ २९० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध oreirrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrs.seksee श्रमण भगवान् महावीर उस समय तीन ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान) से युक्त थे वे यह जानते थे कि मैं देवलोक से च्यव कर मनुष्य लोक में जाऊँगा, मैं वहाँ से च्यव कर गर्भ में आया हूँ परन्तु वे च्यवन समय को नहीं जानते थे क्योंकि वह काल अत्यंत सूक्ष्म होता है। विवेचन - प्रत्येक कालचक्र २० कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इसके दो भेद हैं - १. अवसर्पिणी और २. उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी काल १० कोटाकोटि सागरोपम का होता है और उत्सर्पिणी काल भी १० कोटाकोटि सागरोपम का होता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में ६-६ आरक (आरे) होते हैं। उत्सर्पिणीकाल के छह आरे इस प्रकार हैं - १. दुष्षम दुष्षमा २. दुष्षमा ३. दुष्षम सुषमा ४. सुषम दुष्षमा ५. सुषमा ६. सुषम सुषमा। अवसर्पिणी काल के छह आरे इस प्रकार हैं- १. सुषम-सुषमा २. सुषमा ३. सुषम-दुष्षमा ४. दुष्षम सुषमा ५. दुष्षमा और ६. दुष्षम दुष्षमा। इसमें चौथा आरा ४२ हजार वर्ष कम एक कोटा-कोटि सागरोपम का होता है। इस अवसर्पिणी काल के तीन आरे बीत जाने के बाद जब चौथे आरे के ७५ वर्ष ८॥ माह शेष रहे थे तब दसवें प्राणत नामक देवलोक से भगवान् महावीर स्वामी का जीव वहाँ का आयुष्य पूरा करके भरत क्षेत्र (भारत वर्ष) के दक्षिण ब्राह्मण कुंडपुर नगर में ऋषभदत्त ब्राह्मण की धर्मपत्नी देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। ___ क्षत्रिय कुण्ड ग्राम नगर तथा माहणकुंड ग्राम नगरादि के लिए जो ग्राम नगर दो शब्द आये हैं, उसके लिए 'पहले वह गांव था और बाद में वसति के बढ़ जाने से नगर हो गया' तथा गांव के होते हुए भी नगर की रौनक वाला, ऐसा गुरु भगवन्त फरमाते हैं। भगवान् महावीर स्वामी जिस समय गर्भ में आए, उस समय मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान इन तीन ज्ञान से युक्त थे। वे अपना च्यवना जानते थे अर्थात् मैं अमुक समय में च्यवृंगा, ऐसा जानते थे। अब मैं च्यव गया हूँ, ऐसा भी जानते थे। किन्तु अब मैं च्यव रहा हूँ, ऐसा नहीं जानते थे क्योंकि च्यवन समय सूक्ष्म होता है। छद्मस्थ का उपयोग अन्तर्मुहूर्त का होता हैं। इसलिये एक समय, दो समय आदि समयों को छद्मस्थ नहीं जान सकता है। एक वर्ष में अपेक्षा विशेष से तीन ऋतुएँ होती हैं यथा - १. ग्रीष्म ऋतु (चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ) २. वर्षा ऋतु (श्रावण, भादवा, आसोज और कार्तिक) ३. शरद हेमन्त ऋतु (मिगसर, पौष, माघ और फाल्गुन)। जैसे - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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