SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ २०७ सिया णं परो णेया वइजा - आउसो त्ति! वा भइणि त्ति वा आहर एयं वत्थं सिणाणेण वा, कक्केण वा, लोहेण वा, वण्णेण वा, चुण्णेण वा, पउमेण वा आघंसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स णं दाहामो एयप्पगारं णिग्योसं सुच्चा णिसम्म से पुव्वामेव आलोइज्जा, आउसो त्ति वा, भइणि त्ति वा! मा एयं तमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा अभिकंखसि मे दाउं? एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सिणाणेण वा पघंसित्ता दलइज्जा, तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा। कठिन शब्दार्थ - सिणाणेण - स्नानादि सुगंधित द्रव्यों से, आघंसित्ता - घर्षण करके। भावार्थ - कदाचित् गृहस्थ-गृहस्वामी घर के किसी सदस्य से इस प्रकार कहे कि - हे आयुष्मन् या बहन! वह वस्त्र लाओ उसे हम धो कर सुगंधित द्रव्यों से घर्षित कर साधु साध्वी को देंगे? यह सुन कर साधु साध्वी उसे ऐसा करने से मना करे। साधु साध्वी के मना करने पर भी यदि वह गृहस्थ वस्त्र को धोकर, सुगंधित द्रव्यों से प्रघर्षित करके देवे तो तथाप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। से णं परो णेया वइजा - आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा आहर एयं वत्थं सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा उच्छोलित्ता वा पहोलित्ता वा समणस्स णं दाहामो एयप्पगारं णिग्योसं तहेव णवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदग वियडेंण वा उसिणोदग वियडेण वा उच्छोलेहि वा पहोलेहि वा, अभिकंखसि मे दाउं, सेसं तहेव जाव णो पडिगाहिज्जा॥से परो णेया वइज्जा आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा आहरेयं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्स णं दाहामो एयप्पगारं णिग्योसं सोच्चा णिसम्म जाव भइणि त्ति वा, मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि णो खलु मे कप्पइ एयप्पगारं वत्थं पडिग्गाहित्तए। से सेवं वयंतस्स परो कंदाणि वा जाव विसोहित्ता दलइज्जा तहप्पगारं वत्थं अफासयं जाव णो पडिग्गाहिज्जा॥ - कठिन शब्दार्थ - उच्छोलित्ता - उत्क्षालन कर अर्थात् एक बार धो कर, पहोलेत्ता - पक्षालन कर अर्थात् बार-बार धो कर, विसोहित्ता-विशुद्ध कर अर्थात् साफ कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy