SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ४ १९३ और वृत्त यानी गोलाकार हैं, बड़े विस्तार वाले हैं, इनकी अनेक शाखाएँ हैं अथवा इनकी प्रशाखाएं दूर तक फैली हुई हैं अथवा ये वृक्ष प्रासादीय-प्रसन्नता देने वाले हैं यावत् प्रतिरूपसुन्दर हैं इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा साधु साध्वी बोल सकते हैं। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते णो एवं वइज्जा तंजहा-पक्का इ वा, पायखज्जा इ वा, वेलोइया इवा, टाला इ वा, वेहिया इ वा, एयप्पगारं भासं सावजं जाव णो भासिज्जा। - कठिन शब्दार्थ - बहुसंभूया - बहु संभूत-विपुल परिमाण में उत्पन्न, वणफला - वन के फल, पक्का - पक्व पायखज्जा - पका कर खाने योग्य, वेलोइया - वेलोचिततोड लेने योग्य, टाला- कोमल, वेहिया - वेध्य-खण्ड-खण्ड करने योग्य। भावार्थ - साधु या साध्वी प्रचुर मात्रा में लगे हुए वनफलों को देख कर इस प्रकार न बोले कि - ये फल पक गए हैं अथवा ये फल पका कर खाने योग्य हैं। अब ये फल तोड लेने योग्य हैं। ये फल अभी कोमल हैं क्योंकि इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है और ये फल खण्ड-खण्ड (टुकडे) कर खाने योग्य हैं। इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा का साधु साध्वी प्रयोग न करे। . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं वइजा तंजहा - असंथडा इ वा बहुणिवट्टिमफला इ वा बहुसंभूया इ वा भूयरूवित्ति वा एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिज्जा। __कठिन शब्दार्थ - असंथडा - असंतृत या असमर्थ अर्थात् फलों के भार से नम्र या धारण करने में असमर्थ, बहुणिवट्टिमफला - बहुनिर्वत्तितफल-बहुत फल लगे हुए। ___ भावार्थ - साधु अथवा साध्वी बहुत परिमाण में लगे हुए वन के आम आदि फलों को देख कर प्रयोजन होने पर इस प्रकार कह सकता है कि - ये वृक्ष फलों का भार सहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं अथवा ये वृक्ष बहुत फलों वाले हैं, ये फल बहुत परिपक्व हैं ये अबद्ध अस्थि वाले अर्थात् इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है अतः कोमल फल हैं। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा साधु साध्वी बोल सकते हैं। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए तहावि ताओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy